कहान जैनशास्त्रमाळा ]
इष्टोपदेश
[ २१
इत्यादि – अतो ज्ञायते ऐन्द्रियंकं सुखं वासनामात्रमेव, नात्मनः
स्वाभाविकानाकुलत्वस्वभावम् । कथमन्यथा लोके सुखजनकत्वेन प्रतीतानामपि भावानां
दुःखहेतुत्वम् ? एवं दुःखमपि ।।
इन सबसे मालूम पड़ता है, कि इन्द्रियोंसे पैदा होनेवाला सुख वासनामात्र ही है ।
आत्माका स्वाभाविक एवं अनाकुलतारूप सुख वासनामात्र नहीं है, वह तो वास्तविक है ।
यदि इन्द्रियजन्य सुख वासनामात्र-विभ्रमजन्य न होता, तो संसारमें जो पदार्थ सुखके पैदा
करनेवाले माने गये हैं, वे ही दुःखके कारण कैसे हो जाते ? अतः निष्कर्ष निकला कि
देहधारियोंका सुख केवल काल्पनिक ही है और इसी प्रकार उनका दुःख भी काल्पनिक
है ।।६।।
तेथी जणाय छे, के इन्द्रियजनित सुख वासनामात्र ज छे; ते आत्मानुं स्वाभाविक –
अनाकुल स्वभाववाळुं नथी, नहि तो संसारमां जे पदार्थो सुखजनक मानवामां आवे छे
ते दुःखनुं कारण केम बने? एम ते (इन्द्रिय – सुख) पण दुःख ज छे.
भावार्थ : — अज्ञानी जीवोने जे सुख – दुःख होय छे, ते इन्द्रियजनित छे –
वासनामात्र ज छे.
‘देहादि पदार्थो मने उपकारक छे, माटे इष्ट छे अने तेओ मने अपकारक –
अहितकारक छे (एम कोईक वार माने छे), माटे अनिष्ट छे’ — एवी विभ्रमरूप कल्पनाथी
उत्पन्न थयेलो संस्कार ते वासना छे.
अज्ञानी जीव, आवी वासनाना कारणे भोगोना निमित्ते उत्पन्न थयेला इन्द्रियजनित
सुखमां भ्रमथी वास्तविक (साचा) सुखनी कल्पना करे छे.
आ भोगो रोग समान छे. तेओ दुःखना समये रोगोनी जेम आकुलता – उद्वेगतानां
निमित्त थाय छे. कोई कारणथी मन दुःखी होय अर्थात् चित्त – क्षोभ होय, तो सुंदर भोगो
पण उद्वेगकारक लागे छे; तेओ असह्य लागे छे. भूख – तरसथी पीडाता मनुष्यने सुंदर महेल,
चंदन, चंद्रनां किरण, युवतीओ वगेरे सुंदर पदार्थो पण दुःखकर लागे छे.
इन्द्रियजन्य सुख वासनामात्र अथवा कल्पनाजनित छे. ते आत्मानुं स्वाभाविक –
अनाकुलरूप सुख नथी, पण वास्तवमां ते दुःख ज छे, तेथी तेमां वास्तविक सुखनी कल्पना
करवी व्यर्थ छे.
जो इन्द्रियजन्य सुख वासनामात्र – विभ्रमजन्य न होय तो आ संसारमां जे पदार्थ
कयारेक सुखदायक मनाय छे, ते ज क्यारेक दुःखदायक केम मनाय? तेथी अज्ञानी जीवोनुं
सुख – दुःख केवळ वासनामात्र छे, बन्ने दुःख छे. ६.