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इष्टोपदेश
[ भगवानश्रीकुंदकुंद-
अत्राह पुन शिष्य : — एते सुखदुःखे खलु वासनामात्रे कथं न लक्ष्येते इति । खल्विति
वाक्यालंकारे निश्चये वा । कथं केन प्रकारेण न लक्ष्येते न संवेद्येते लोकैरिति शेषः । शेषं
स्पष्टम् ।
अत्राचार्यः प्रबोधयति —
मोहेन संवृतं ज्ञानं स्वभावं लभते न हि ।
मत्तः पुमान् पदार्थानां यथा मदनकोद्रवैः ।।७।।
टीका — नहि नैव लभते परिच्छिनत्ति घातूनामनेकार्थत्वाल्लभेर्ज्ञानेपि वृत्तिस्तथा च लोको
शंका — ऐसा सुन शिष्य पुनः कहने लगा कि ‘‘यदि ये सुख और दुःख वासनामात्र
ही हैं, तो वे लोगोंको उसी रूपमें क्यों नहीं मालूम पड़ते हैं ? आचार्य समझाते हुए बोले —
मोहकर्मके उदयसे, वस्तुस्वभाव न पात ।
मदकारी कोदों भखे, उल्टा जगत लखात ।।७।।
अर्थ — मोहसे ढका हुआ ज्ञान, वास्तविक स्वरूपको वैसे ही नहीं जान पाता है,
जैसे कि मद पैदा करनेवाले कोद्रव (कोदों)के खानेसे नशैल-बे-खबर हुआ आदमी
पदार्थोंको ठीक-ठीक रूपसे नहीं जान पाता है ।
अहीं, शिष्य फरीथी कहे छे — ‘‘जो ते सुख – दुःख खरेखर [‘खलु’ शब्द वाक्यालंकार
या निश्चयना अर्थमां छे.] वासनामय होय, तो (लोकोने) ते (वासनामात्र छे एम) केम मालूम
पडतुं नथी? अर्थात् लोकोने ते केम संवेदनमां आवतुं नथी? शेष स्पष्ट छे.
अहीं, आचार्य समजावे छे —
मोहे आवृत ज्ञान जे, पामे नहीं निजरूप,
कोद्रवथी जे मत्त जन, जाणे न वस्तुस्वरूप. ७.
अन्वयार्थ : — [यथा ] जेम [मदनकोद्रवैः ] मद उत्पन्न करनार कोद्रवोथी (कोद्रवना
निमित्तथी) [मत्तः पुमान् ] उन्मत्त (पागल) बनेलो माणस [पदार्थानां ] पदार्थोनुं [स्वभावं ]
यथार्थ स्वरूप [न लभते ] जाणतो नथी, [तथा एव ] तेम ज [मोहेन ] मोहथी [संवृतं ]
आच्छादित थयेलुं [ज्ञानं ] ज्ञान [स्वभावं ] वास्तविक स्वरूपने [न हि लभते ] जाणतुं नथी.
टीका : — न हि एटले खरेखर प्राप्त करतुं – जाणतुं नथी. (धातुओना अनेक अर्थ
होवाथी ‘लभ्’ शब्द मेळववाना अर्थमां अने ज्ञानना अर्थमां पण वपराय छे; जेम के लोक