कहान जैनशास्त्रमाळा ]
इष्टोपदेश
[ २३
वक्ति मयास्य चित्तं लब्धमिति । किं तत् कर्तृ – ज्ञानं धर्मधर्मिणोः कथंचित्तादात्म्यादर्थग्रहण-
व्यापारपरिणत आत्मा । कं ? स्वभावं, स्वोऽसाधारणो — अन्योऽन्यव्यतिकरे सत्यपि व्यक्त्यंतरेभ्यो
विवक्षितार्थस्य व्यावृत्तप्रत्ययहेतुर्भावो धर्मः स्वभावस्तं । केषाम् ? पदार्थानां सुखदुःखशरीरादीनां ।
किंविशिष्टं सत् ज्ञानं ? संवृत्तं प्रच्छादितं वस्तुयाथात्म्यप्रकाशने अभिभूतसामर्थ्यम् । केन ?
मोहेन — मोहनीयकर्मणो विपाकेन ।
तथा चोक्तम् [लघीयस्त्रये ] —
विशदार्थ — मोहनीयकर्मके उदयसे ढका हुआ ज्ञान — वस्तुओंके यथार्थ (ठीक
ठीक) स्वरूपका प्रकाशन करनेमें दबी हुई सामर्थ्यवाला ज्ञान, सुख, दुःख, शरीर आदिक
पदार्थोंके स्वभावको नहीं जान पाता है । परस्परमें मेल रहने पर भी किसी विवक्षित (खास)
पदार्थको अन्य पदार्थोंसे जुदा जतलानेके लिए कारणीभूत धर्मको (भावको) स्व-असाधारण
भाव कहते हैं । अर्थात् दो अथवा दोसे अधिक पदार्थोंके बीच मिले रहने पर भी जिस
असाधारण भाव (धर्म)के द्वारा किसी खास पदार्थको अन्य पदार्थोंसे जुदा जान सके, उसी
धर्मको उस पदार्थका स्वभाव कहते हैं ।
ऐसा ही अन्यत्र भी कहा है — ‘‘मलविद्ध०’’
कहे छे, ‘में तेनुं मन मेळव्युं – जाण्युं’) कोण ते (जाणतुं नथी)? ज्ञान (कर्ता) अर्थात् धर्म
अने धर्मीना कथंचित् तादात्म्यपणाने लीधे अर्थने ग्रहण करवाना (जाणवाना) व्यापारमां
परिणत आत्मा.
कोने (जाणतुं नथी)? स्वभावने; स्व एटले असाधारण; परस्पर भिन्न होवा छतां
(एकठा मळेला पदार्थोमांथी) विवक्षित (खास) पदार्थने अन्य पदार्थोथी व्यावर्त (भिन्न)
बताववामां कारणभूत भाव, ते धर्म – ते स्वभाव, तेने.
(बे अथवा बेथी अधिक मळेला पदार्थोमांथी कोई खास पदार्थने अन्य पदार्थोथी
भिन्न बतावनार असाधारण भाव (धर्म) तेने ते पदार्थनो स्वभाव कहे छे).
कोना (स्वभावने)? सुख – दुःख – शरीरादि पदार्थोना (स्वभावने). ते ज्ञान केवुं छे?
ढंकायेलुं — आच्छादित थयेलुं — अर्थात् वस्तुना यथार्थ स्वरूपना प्रकाशमां जेनुं सामर्थ्य
अभिभूत थयुं छे (पराभव पाम्युं छे) तेवुं (ते ज्ञान). कोनाथी (अभिभूत थयुं छे)?
मोहथी – मोहनीय कर्मना विपाकथी (उदयथी) — (अर्थात् मोहनीयकर्मना उदयमां जोडावाथी
ते ज्ञान आच्छादित थयुं छे).
वळी, (लधीयस्त्रयमां) कह्युं छे के — ‘मलविद्ध०’