kahAn jainashAstramALA ]
iShTopadesh
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जीवकृतं परिणामं निमित्तमात्रं प्रपद्य पुनरन्ये ।
स्वयमेव परिणमन्तेऽत्र पुद्गलाः कर्मभावेन ।।१२।।
परिणममानस्य चिदश्चिदात्मकैः स्वयमपि स्वकैर्भावैः ।
भवति हि निमित्तमात्रं पौद्गलिकं कर्म तस्यापि ।।१३।।
तथा जीवः कालादिलब्ध्या बलवानात्मा जीवस्य स्वस्यैव हितमनन्तसुखहेतुत्वेनोपकारकं
मोक्षमाकाङ्क्षति । अत्र दृष्टान्तमाह — स्वस्वेत्यादि । निजनिजमाहात्म्यबहुतरत्वे सति स्वार्थं
*‘jIvakRut pariNAmane nimittamAtrarUp pAmIne (jIvathI bhinna) anya pudgalo svayam
ja karmarUp pariName chhe.’ 12.
nishchayathI potAnA chetanAtmak pariNAmothI svayam ja pariNamatA jIvane paN te
paudgalik karma nimittamAtra thAy chhe.’ 13.
tathA kAlAdi labdhithI balavAn thayelo AtmA, jIvane potAne ja hitarUp tathA
anantasukhanA kAraNapaNAne lIdhe upakArak evA mokShanI AkAnkShA kare chhe.
ahIn draShTAnta kahe chhe — ‘स्वस्वेत्यादि०’
potapotAnun mAhAtmya adhikatar vadhatAn, potAnA svArthane arthAt potAne upakArak
vastune koN na ichchhe? arthAt sarve ichchhe chhe — evo artha chhe.
‘‘जीवकृतं परिणामं०’’ ‘‘परिणममानस्य०’’
जीवके द्वारा किये गये परिणाम जो कि निमित्तमात्र हैं, प्राप्त करके जीवसे विभिन्न
पुद्गल खुद ब खुद कर्मरूप परिणम जाते हैं । और अपने चेतनात्मक परिणामोंसे स्वयं ही
परिणमनेवाले जीवके लिए वह पौद्गलिककर्म सिफ र् निमित्त बन जाता है । तथा कालादि
लब्धिसे बलवान हुआ जीव अपने हितको अनन्त सुखका कारण होनेसे उपकार करनेवाले
स्वात्मोपलब्धिरूप मोक्षको चाहता है । यहाँ पर एक स्वभावोक्ति कही जाती है कि ‘‘अपने
*जीवपरिणामहेदुं कम्मत्तं पुग्गला परिणमंति ।
पुग्गलकम्मणिमित्तं तहेव जीवो परिणमइ ।।८०।।
णवि कुव्वइ कम्मगुणे जीवो कम्मं तहेव जीव गुणे ।
अण्णोण्णणिमित्तेण दु परिणामं जाण दोह्णंपि ।।८१।।
[समयसारे कुन्दकुन्दाचार्यः ]