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iShTopadesh
[ bhagavAnashrIkundakund-
टीका —
‘‘कत्थवि बलिओ जीव कत्थवि कम्माइ हुंति बलियाइ ।
जीवस्स य कम्मस्स य पुव्वविरुद्धाइ वइराइ ।।’’
इत्यभिधानात्पूर्वोपार्जितं बलवत्कर्म कर्मणः स्वस्यैव हितमाबध्नाति
जीवस्यौदयिकादिभावमुद्भाव्य नवनवकर्माधायकत्वेन स्वसन्तानं पुष्णातीत्यर्थः ।
तथा चोक्तं [पुरुषार्थसिद्धयुपाये ] —
anvayArtha : — [कर्म कर्महिताबन्धि ] karma karmanun hit chAhe chhe, [जीवः जीवहितस्पृहः ]
jIv jIvanun hit chAhe chhe. [स्वस्वप्रभावभूयस्त्वे ] potapotAno prabhAv vadhatAn, [कः वा ] koN
[स्वार्थे ] potAno svArtha [न वाञ्छति ] na ichchhe?
TIkA : — ‘कत्थवि.......बइराई’ ।
‘koI vakhat jIv balavAn thAy chhe, to koI vakhat karma balavAn thAy chhe. e
rIte jIv ane karmane pahelethI (anAdithI) virodh arthAt vair chAlyun Avyun chhe.
A kathanAnusAr pUrvopArjit balavAn karma (dravyakarma), karmanun eTale potAnun ja hit
kare chhe, arthAt jIvamAn audayikAdi bhAvone utpanna karI navAn navAn dravyakarmonun grahaN karI
potAnA santAnane (pravAhane) puShTa kare chhe (chAlu rAkhe chhe), evo artha chhe.
tathA ‘पुरुषार्थसिद्धयुपाय’mAn kahyun chhe ke —
अर्थ — कर्म कर्मका हित चाहते हैं । जीव जीवका हित चाहता है । सो ठीक ही
है, अपने अपने प्रभावके बढ़ने पर कौन अपने स्वार्थको नहीं चाहता । अर्थात् सब अपना
प्रभाव बढ़ाते ही रहते हैं ।
विशदार्थ — कभी जीव बलवान होता है तो कभी कर्म बलवान हो जाते हैं ।
इस तरह जीव और कर्मोंका पहिलेसे (अनादिसे) ही बैर चला आ रहा है । ऐसा
कहनेसे मतलब यह निकला कि पूर्वोपार्जित बलवान, द्रव्यकर्म, अपना यानी द्रव्यकर्मका
हित करता है अर्थात् द्रव्यकर्म, जीवमें औदयिक आदि भावोंको पैदा कर नये
द्रव्यकर्मोंको ग्रहण कर अपनी संतानको पुष्ट किया करता है, जैसा कि अमृतचंद्राचार्यने
पुरुषार्थसिद्धियुपायमें कहा है —