स्वर्गादिक स्थानोंमें आनन्दके साथ रहता है । दूसरा व्रतादिकोंको न पालता हुआ असंयमी
पुरुष नरकादिक स्थानोंमें दुःख भोगता रहता है । अतः व्रतादिकोंका परिपालन निरर्थक
नहीं, अपितु सार्थक है ।
शंका — यहाँ पर शिष्य पुनः प्रश्न करता हुआ कहता है — ‘‘यदि उपरिलिखित
कथनको मान्य किया जाएगा, तो चिद्रूप आत्मामें भक्ति भाव (विशुद्ध अंतरंग अनुराग)
करना अयुक्त ही हो जाएगा ? कारण कि आत्मानुरागसे होनेवाला मोक्षरूपी सुख तो
योग्य द्रव्य, क्षेत्र, काल, भावादिरूप सम्पत्तिकी प्राप्तिकी अपेक्षा रखनेके कारण बहुत
दूर हो जाएगा और बीचमें ही मिलनेवाला स्वर्गादि-सुख व्रतोंके साहाय्यसे मिल जाएगा
।
तब फि र आत्मानुराग करनेसे क्या लाभ ? अर्थात् सुखार्थी साधारण जन आत्मानुरागकी
ओर आकर्षित न होते हुए, व्रतादिकोंकी ओर ही अधिक झुक जाएँगे ।
karanAr mithyAdraShTi jIv narakAdi sthAnomAn dukh bhogave chhe.
mATe vratAdinun pAlan svargAdisukhanI apekShAe sArthak chhe. 3
have shiShya pharIthI AshankA kare chhe —
evI rIte AtmAnI bhakti ayukta (ayogya) Tharashe, arthAt bhagavAn! e rIte
mokShasukh chirabhAvI (lAmbA kALe sAdhya) thashe ane vratothI sAdhya sansAranun sukh to siddha
chhe, tethI chidrUp AtmAmAn bhaktibhAv arthAt vishuddha antarang anurAg karavo ayukta –
aghaTit banashe, kAraN ke tenAthI sAdhya mokShasukh sudravyAdi sAmagrInI apekShA rAkhatun
hovAthI dUravartI thashe ane vrato dvArA avAntar (vachamAn) prApta svargAdinun sukh ek
sAdhya thashe.
दुःखेन तिष्ठति तथा व्रतादि कुर्वन् स आत्मा जीवः सद्रव्यादयो मुक्तिहेतवो यावत्संपद्यन्ते
तावत्स्वर्गादिपदेषु सुखेन तिष्ठति अन्यश्च नरकादिपदेषु दुःखेनेति ।
अथ विनेयः पुनराशंकते — एवमात्मनि भक्तिरयुक्ता स्यादिति भगवन्नैवं
चिरभाविमोक्षसुखस्य व्रतसाध्ये संसारसुखे सिद्धे सत्यात्मनि चिद्रूपे भक्ति – र्भाव-विशुद्ध
आंतरोऽनुरागो – अयुक्ता अनुपपन्ना स्याद्भवेत् तत्साध्यस्य मोक्षसुखस्य सुद्रव्यादिसंपत्त्यपेक्षया
दूरवर्तित्वादवांतरप्राप्तस्य च स्वर्गादिसुखस्य व्रतैकसाध्यत्वात् ।
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iShTopadesh
[ bhagavAnashrIkundakund-