Jain Siddhant Praveshika-Gujarati (Devanagari transliteration).

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४, नामकर्म ९३ अने गोत्र २, ए प्रमाणे १०१ छे.
२३८ प्र. सर्वघाति प्रकृति केटली अने कई कई छे?
उ. एकवीश (२१) छेः ज्ञानावरणनी १
(केवळज्ञानावरण), दर्शनावरणनी ६, (केवळ दर्शनावरण १
अने निद्रा ५, निद्रा, निद्रानिद्रा, प्रचला, प्रचलाप्रचला अने
स्त्यानगृद्धि), मोहनीयनी १४ (अनंतानुबंधी ४,
अप्रत्याख्यानावरण ४, प्रत्याख्यानावरण ४, मिथ्यात्व १
अने सम्यग्मिथ्यात्व १) ए प्रमाणे २१ प्रकृति छे.
२३९ प्र. देशघाति प्रकृति केटली अने कई कई छे?
उ. छव्वीस (२६) छेःज्ञानावरणनी ४ (मति-
ज्ञानावरण, श्रुतज्ञानावरण, अवधिज्ञानावरण अने
मनःपर्ययज्ञानावरण), दर्शनावरणनी ३. (चक्षुदर्शनावरण,
अवधिदर्शनावरण) अचक्षुर्दर्शनावरण मोहनीयनी १४
(संज्वलन ४, नोकषाय ९ अने सम्यक्त्व १), अंतरायनी
ए प्रमाणे छव्वीस छे.
२४० प्र. क्षेत्रविपाकी प्रकृति केटली अने कई कई छे?
उ. चार छेःनरकगत्यानुपूर्वी, तिर्यग्गत्यानुपूर्वी,
मनुष्यगत्यानुपूर्वी अने देवगत्यानुपूर्वी ए चार छे.
२४१ प्र. भवविपाकी प्रकृति केटली अने कई कई
छे?
उ. चार छेःनरकायु, तिर्यंचायु, मनुष्यायु अने
देवायु.
२४२ प्र. जीवविपाकी प्रकृति केटली अने कई कई छे?
उ. इठ्ठयोतेर (७८) छेःघातिकर्मनी ४७,
गोत्रनी २, वेदनीयनी २ अने नामकर्मनी २७ (तीर्थंकर
प्रकृति, उच्छ्वास, बादर, सूक्ष्म, पर्याप्ति, अपर्याप्ति,
सुस्वर, दुःस्वर, आदेय, अनादेय, यशःकीर्ति,
अपयशःकीर्ति, त्रस, स्थावर, प्रशस्त
विहायोगति,
अप्रशस्त विहायोगति, सुभग, दुर्भग, गति ४, जाति ५)
ए सर्व मळीने ७८ प्रकृति छे.
२४३ प्र. पुद्गलविपाकी प्रकृति केटली अने कई कई
छे?
उ. बासठ छेः(सर्वप्रकृति १४८मांथी क्षेत्रविपाकी
४, भवविपाकी ४, जीवविपाकी ७८ एवी रीते सर्व मळीने
५४ ][ अध्यायः २श्री जैन सिद्धांत प्रवेशिका ][ ५५