✾ जीवोनी चेतनाने ब्रÙनी चेतना मानवी ✾
वळी तेओ कहे छे के ‘‘माया होवाथी लोक उत्पन्न थयो त्यां जीवोने जे चेतना छे
ते तो ब्रह्मस्वरूप छे अने शरीरादिक माया छे; त्यां जेम जळनां भरेलां जुदां जुदां घणां
पात्रो छे ते सर्वमां चंद्रनुं प्रतिबिंब जुदुं जुदुं पडे छे पण चंद्रमा तो एक छे, तेम जुदां
जुदां घणां शरीरोमां ब्रह्मनो चैतन्यप्रकाश जुदो जुदो होय छे, पण ब्रह्म तो एक छे. तेथी
जीवनी चेतना छे ते ब्रह्मनी ज छे.’’
एम कहेवुं पण भ्रम ज छे. कारण के — शरीर जड छे तेमां ब्रह्मना प्रतिबिंबथी
चेतना थई तो घटपटादि जड छे तेमां ब्रह्मनुं प्रतिबिंब केम न पड्युं? तथा तेमां चेतना
केम न थई?
त्यारे ते कहे छे के — ‘‘शरीरने तो चेतन करतुं नथी पण जीवने करे छे.’’
तेने पूछीए छीए के – जीवनुं स्वरूप चेतन छे के अचेतन? जो चेतन छे तो चेतननुं
चेतन शुं करशे? तथा जो अचेतन छे तो शरीर, घटपटादि अने जीवनी एक जाति थई?
वळी ब्रह्मनी अने जीवोनी चेतना एक छे के जुदी? जो एक छे तो (बेउमां) ज्ञाननुं वधता –
ओछापणुं केम देखाय छे? तथा ते जीवो परस्पर एकबीजानी वातने जाणता नथी तेनुं शुं
कारण? तुं कहीश के — ‘‘ए घटउपाधिनो भेद छे’’ तो घटउपाधि थतां तो चेतना भिन्नभिन्न
ठरी. वळी घटउपाधि मटतां तेनी चेतना ब्रह्ममां मळशे के नाश थई जशे? जो नाश थई
जशे तो आ जीव अचेतन रही जशे. तथा जो तुं कहीश के — जीव ज ब्रह्ममां मळी जाय
छे तो त्यां ब्रह्ममां मळतां जीवनुं अस्तिव रहे छे के नथी रहेतुं? जो तेनुं अस्तित्व रहे
छे तो ए रह्यो अने तेनी चेतना तेनामां रही, तो ब्रह्ममां शुं मळ्युं? तथा जो अस्तित्व
नथी रहेतुं तो तेनो नाश थयो पछी ब्रह्ममां कोण मळ्युं? तुं कहीश के ‘‘ब्रह्मनी अने जीवनी
चेतना जुदी जुदी छे’’ तो ब्रह्म अने सर्व जीवो पोते ज जुदा जुदा ठर्या. ए प्रमाणे जीवोनी
चेतना छे ते ब्रह्मनी छे एम पण बनतुं नथी.
✾ शरीरादिकनुं मायारुप थवुं ✾
वळी तुं शरीरादिकने मायाना कहे तो त्यां माया ज हाडमांसादिरूप थाय छे के मायाना
निमित्तथी अन्य कोई हाडमांसादिरूप थाय छे? जो माया ज थाय छे तो मायाने वर्ण – गंधादिक
पहेलांथी ज हतां के नवीन थयां? जो पहेलांथी ज हतां तो पहेलां तो माया ब्रह्मनी हती
अने ब्रह्म पोते अमूर्तिक छे. त्यां वर्णादिक केवी रीते संभवे? तथा जो नवीन थयां कहे तो
अमूर्तिक मूर्तिक थयो, एटले अमूर्तिक स्वभाव शाश्वत न ठर्यो? कदाचित् एम कहीश के –
‘‘मायाना निमित्तथी अन्य कोई ए रूप थाय छे.’’ तो अन्य पदार्थ तो तुं ठरावतो ज नथी
तो ए रूप थयुं कोण?
१०२ ][ मोक्षमार्गप्रकाशक