जो तुं कहीश के — ‘‘ए नवीन पदार्थ नीपज्या’’ तो ए मायाथी भिन्न नीपज्या के
अभिन्न नीपज्या? जो मायाथी भिन्न नीपज्या छे तो शरीरादिकने मायामय केम कहे छे?
कारण के ते तो पदार्थमय थया. तथा अभिन्न नीपज्या छे तो माया तद्रूप ज थई, नवीन
पदार्थ नीपज्या केम कहे छे?
ए प्रमाणे शरीरादिक मायास्वरूप छे एम कहेवुं मात्र भ्रम छे.
वळी ते कहे छे के — ‘‘मायामांथी राजस, तामस अने सात्त्विक ए त्रण गुण
ऊपज्या’’ एम कहेवुं ए पण मिथ्या छे. कारण के – मानादि कषायरूप भावने राजस, क्रोधादिक
कषायरूप भावने तामस तथा मंदकषायरूप भावने सात्त्विक कहेवामां आवे छे. हवे ए भाव
तो चेतनामय प्रत्यक्ष जोवामां आवे छे अने मायानुं स्वरूप जड छे तो जडथी ए भाव केवी
रीते नीपज्या? जो जडने पण ए भाव होय तो पाषाणादिकने पण होय. ए भाव तो
चेतनास्वरूप जीवना ज देखाय छे. माटे ते भाव मायाथी नीपज्या नथी. जो मायाने चेतन
ठरावे तो मानीए. हवे मायाने चेतन ठरावतां शरीरादिक मायाथी भिन्न – भिन्न नीपज्यां
कहीश तो ए नहि मानीए. माटे निर्धार कर. भ्रमरूप मानवाथी शुं लाभ छे?
वळी ते कहे छे के — ‘‘ए गुणोमांथी ब्रह्मा, विष्णु, महेश ए त्रण देव प्रगट थाय.’’
ते केम संभवे? अर्थात् ए कहेवुं पण मिथ्या ज छे. कारण के गुणीथी तो गुण थाय पण
गुणमांथी गुणी केवी रीते ऊपजे? जेम कोई पुरुषथी तो क्रोध थाय पण क्रोधमांथी पुरुष
केवी रीते ऊपजे? वळी ए गुणोनी तो निंदा करवामां आवे छे तो तेनाथी नीपजेला ब्रह्मादिकने
पूज्य केम मनाय? वळी गुणने तो मायामय अने तेने ब्रह्मना अवतार कहे छे पण ते तो
मायाना अवतार थया, तेने वळी ब्रह्मना
*अवतार केवी रीते कहे छे? ए गुणो जेनामां
थोडा पण होय तेने तो छोडाववानो उपदेश आपीए छीए तो पछी तेनी ज मूर्तिने पूज्य
मानीए तो ए केवो भ्रम छे? (ए तो मोटो भ्रम छे.)
वळी तेमनुं कर्तव्य पण ए गुणोमय भासे छे. कुतूहलादिक, युद्धादिक वा स्त्रीसेवनादिक
कार्य तेओ करे छे, ए बधी क्रिया राजसादिक गुणो वडे ज होय छे. तेथी तेमने राजसादिक
होय छे एम कहे. तेमने पूज्य अने परमेश्वर कहेवा तो न बने. जेम अन्य संसारी जीवो
छे तेवा ए पण छे.
* ब्रह्मा, विष्णु अने शिव ए — त्रणे ब्रह्मनी प्रधान शक्ति छे. (विष्णुपुराण अ० २२-५८.)
कलिकाळना प्रारंभमां परब्रह्मपरमात्माए रजोगुणथी उत्पन्न थई ब्रह्मा थईने प्रजानी रचना करी.
प्रलय वखते तमोगुणथी उत्पन्न थई काळ ( – शिव) बनीने ते सृष्टिने गळी गया तथा ते ज
परमात्माए सत्वगुणथी उत्पन्न थई नारायण बनी समुद्रमां शयन कर्युं.
(वायुपुराण अ० ७, ६८, ६९.)
पांचमो अधिकारः अन्यमत निराकरण ][ १०३