उत्तरः — जो कर्म पोते कर्ता थई उद्यमथी जीवना स्वभावनो घात करे, बाह्य
सामग्री मेळवी आपे त्यारे तो कर्ममां चैतन्यपणुं पण जोईए तथा बळवानपणुं जोईए, पण
एम तो नथी. सहज ज निमित्त - नैमित्तिक संबंध छे. ज्यारे ते कर्मनो उदयकाळ होय त्यारे
आत्मा पोते ज स्वभावरूप परिणमन करतो नथी — विभावरूप परिणमन करे छे तथा जे
अन्य द्रव्यो छे ते ते ज प्रमाणे संबंधरूप थई परिणमे छे. जेम कोई पुरुषना माथा उपर
मोहनधूळ पडी छे तेथी ते पुरुष पागल बनी गयो, हवे त्यां ए मोहनधूळने तो ज्ञान पण
नथी तेम तेमां बळवानपणुं पण नथी, छतां पागलपणुं ए मोहनधूळ वडे ज थतुं जोवामां
आवे छे. मोहनधूळनुं तो मात्र निमित्तपणुं ज छे, पण ते पुरुष पोते ज पागल थई परिणमे
छे, एवो ज निमित्त – नैमित्तिकभाव बनी रह्यो छे. वळी जेम सूर्योदयकाले चकवा – चकवीनो
संयोग थाय छे त्यां कोईए द्वेषबुद्धिथी वा बळपूर्वक रात्रि विषे तेमने जुदां कर्यां नथी तेम
कोईए करुणाबुद्धिपूर्वक दिवस विषे लावीने मेळव्यां नथी पण सूर्योदयनुं निमित्त पामीने पोते
ज मळे छे, तथा सूर्यास्तनुं निमित्त पामीने पोते ज छूटां पडे छे. एवो ज निमित्त -
नैमित्तिकभाव बनी रह्यो छे. ए ज प्रमाणे कर्मनो पण निमित्त - नैमित्तिकभाव जाणवो. ए
प्रमाणे कर्मना उदय वडे जीवनी अवस्था थाय छे.
✾ नवीन बंधा केवी रीते थाय छे ✾
हवे नवीन बंध केवी रीते थाय छे ते कहीए छीए. जेम सूर्यनो प्रकाश छे ते
मेघपटलथी जेटलो प्रकाश व्यक्त नथी तेटलो तो ते काळमां तेनो अभाव छे, तथा ए
मेघपटलना मंदपणाथी जेटलो प्रकाश प्रगट छे ते ए सूर्यना स्वभावनो अंश छे; पण
मेघपटलजनित नथी. तेम जीवनो ज्ञान – दर्शन – वीर्य स्वभाव छे, ते ज्ञानावरण – दर्शनावरण
– अंतरायना निमित्तथी जेटलो प्रगट नथी तेटलानो तो ते काळमां अभाव छे तथा ए कर्मोना
क्षयोपशमथी जेटलो ज्ञान, दर्शन अने वीर्यस्वभाव प्रगट वर्ते छे ते जीवना स्वभावनो अंश
ज छे, कर्मोदयजन्य औपाधिकभाव नथी. हवे ए प्रमाणे स्वभावना अंशनो अनादिथी मांडी
कदी पण अभाव थतो नथी. अने ए वडे ज जीवना जीवत्वनो निश्चय करी शकाय छे के आ
जे देखवा – जाणवावाळी शक्तिने धारण करनार वस्तु छे ते ज आत्मा छे, वळी ए स्वभाव
वडे नवीन कर्मोनो बंध थतो नथी, कारण के निज स्वभाव ज जो बंधनुं कारण थाय तो बंधथी
छूटवुं केम थाय? वळी ए कर्मना उदयथी जेटलां ज्ञान, दर्शन अने वीर्य अभावरूप छे ते
वडे पण बंध थतो नथी, कारण के ज्यां पोते ज अभावरूप छे त्यां ते अभाव अन्यनुं कारण
केम थाय? माटे ज्ञानावरण, दर्शनावरण अने अंतरायना निमित्तथी ऊपजेला भावो नवीन
कर्मबंधना कारणरूप नथी. मोहनीयकर्मना उदयवडे जीवने अयथार्थश्रद्धानरूप मिथ्यात्वभाव थाय
छे. तथा क्रोध, मान, माया अने लोभादिक कषायभाव थाय छे; ते जोके जीवना अस्तित्वमय
छे, जीवथी जुदा नथी, जीव ज तेनो कर्ता छे अने जीवना परिणमनरूप ज ए कार्य थाय
बीजो अधिकारः संसार-अवस्था निरूपण ][ २९