वळी ए क्रोधादि चार कषायमांथी एक काळमां कोई एक ज कषायनो उदय होय छे.
ए कषायोमां पण एकबीजामां परस्पर कारण – कार्यपणुं वर्ते छे. कोई वेळा क्रोधथी मानादि थई
जाय छे, कोई वेळा मानथी क्रोधादि थई जाय छे; तेथी परस्पर ए कषायोमां कोई वेळा भिन्नता
भासे छे तथा कोई वेळा भिन्नता भासती नथी ए प्रमाणे कषायरूप परिणमन थाय छे.
वळी चारित्रमोहना उदयथी नोकषाय थाय छे. हास्यना उदयथी कोई ठेकाणे इष्टपणुं मानी
प्रफुल्लित थाय छे – हर्ष माने छे, रतिना उदयथी कोईने इष्ट मानी तेनाथी प्रीति करे छे – त्यां
आसक्त थाय छे, अरतिना उदयथी कोईने अनिष्ट मानी अप्रीति करे छे – त्यां उद्वेगरूप थाय
छे, शोकना उदयथी कोईमां अनिष्टपणुं मानी दिलगीर थाय छे – खेद माने छे, भयना उदयथी
कोईने अनिष्ट मानी तेनाथी डरे छे – तेनो संयोग इच्छतो नथी, जुगुप्साना उदयथी कोई पदार्थने
अनिष्ट मानी तेनी घृणा – तिरस्कार करे छे – तेनो वियोग थवो इच्छे छे, एम हास्यादि छ जाणवा.
तथा वेदना उदयथी तेने कामपरिणाम थाय छे, त्यां स्त्रीवेदना उदयथी पुरुष साथे रमवानी इच्छा
थाय छे, पुरुषवेदना उदयथी स्त्री साथे रमवानी इच्छा थाय छे अने नपुंसकवेदना उदयथी
एकसाथे बंनेनी साथे रमवानी इच्छा थाय छे. ए प्रमाणे ए नव नोकषाय छे. क्रोधादि जेवा
ए बळवान नथी तेथी तेने इषत्कषाय अर्थात् नोकषाय कहेवामां आवे छे. अहीं ‘‘नो’’ शब्द
इषत्वाचक जाणवो. ए नोकषायनो उदय क्रोधादिकनी साथे यथासंभव होय छे.
ए प्रमाणे उपर कहेला दर्शन तथा चारित्रमोहना उदयथी मिथ्यात्वभाव तथा कषायभाव
थाय छे. ए ज संसारनां मूळ कारण छे. वळी वर्तमानकाळे पण जीव एनाथी ज दुःखी थाय
छे, तथा भावी संसारना कारणरूप कर्मबंधननुं मूळ कारण पण ए ज छे. एनुं ज बीजुं नाम
मोह तथा राग – द्वेष छे. त्यां मिथ्यात्वनुं नाम मोह छे, कारण के त्यां आत्मसावधानतानो अभाव
होय छे. वळी माया – लोभ ए बे कषाय तथा हास्य, रति अने त्रणे प्रकारना वेद ए बधानुं
नाम राग छे, कारण के त्यां इष्टबुद्धि थई अनुराग प्रवर्ते छे. तथा क्रोध – मान ए बे कषाय
अने अरति, शोक, भय, जुगुप्सा ए बधानुं नाम द्वेष छे, कारण के त्यां अनिष्टबुद्धि थई द्वेष
वर्ते छे. सामान्यपणे ए राग – द्वेष अने मोह ए बधानुं नाम मोह छे, कारण के ए बधायमां
सर्वत्र असावधानता ज होय छे.
✾ अंतरायकर्मोदयजन्य अवस्था ✾
अंतरायकर्मना उदयथी जीव इच्छे छे ते थतुं नथी. दान आपवा इच्छे पण आपी शके
नहि, वस्तुनी प्राप्ति इच्छे पण थाय नहि, भोग भोगववा इच्छे पण भोगवी शके नहि,
उपभोग लेवा इच्छे पण लेवाय नहि, अने पोतानी ज्ञानादि शक्तिने प्रगट करवा इच्छे पण
ते प्रगट थई शके नहि. ए प्रमाणे अंतरायना उदयथी पोते जे इच्छे ते थतुं नथी. तथा एना
क्षयोपशमथी किंचित्मात्र इच्छेलुं पण प्राप्त थाय छे. इच्छा तो घणी ज छे, परंतु ए इच्छेलुं
बीजो अधिकारः संसार-अवस्था निरूपण ][ ४३