है; अपनेको न सुहाये ऐसी अनिष्ट अवस्था होती है उसमें द्वेष करता है। तथा शरीरकी
इष्ट अवस्थाके कारणभूत बाह्य पदार्थोंमें तो राग करता है और उसके घातकोंमें द्वेष करता
है। तथा शरीरकी अनिष्ट अवस्थाके कारणभूत बाह्य पदार्थोंमें तो द्वेष करता है और उनके
घातकोंमें राग करता है। तथा इनमें जिन बाह्य पदार्थों से राग करता है उनके कारणभूत
अन्य पदार्थोंमें राग करता है और उनके घातकोंमें द्वेष करता है। तथा जिन बाह्य पदार्थोंसे
द्वेष करता है उनके कारणभूत अन्य पदार्थोंमें द्वेष करता है और उनके घातकोंमें राग करता
है। तथा इनमें भी जिनसे राग करता है उनके कारण व घातक अन्य पदार्थोंमें राग-द्वेष
करता है। तथा जिनसे द्वेष है उनके कारण व घातक अन्य पदार्थोंमें द्वेष व राग करता
है। इसी प्रकार राग-द्वेषकी परम्परा प्रवर्तती है।
हैं। तथा कितने ही वर्ण, गंध, शब्दादिके अवलोकनादिकसे शरीरको इष्ट नहीं होता तथापि
उनमें राग करता है। कितने ही वर्णादिकके अवलोकनादिकसे शरीरको अनिष्ट नहीं होता
तथापि उनमें द्वोष करता है।
द्वेष व राग करता है। इसी प्रकार यहाँ भी राग-द्वेषकी परम्परा प्रवर्तती है।
इष्ट-अनिष्ट माननेका प्रयोजन क्या है?
करता है और उन्हींके अर्थ अन्यसे राग-द्वेष करता है, इसलिये सर्व राग-द्वेष परिणतिका
नाम मिथ्याचारित्र कहा है।