Moksha-Marg Prakashak (Hindi).

< Previous Page   Next Page >


Page 117 of 350
PDF/HTML Page 145 of 378

 

background image
-
पाँचवाँ अधिकार ][ १२७
तथा वहाँ प्रत्यक्ष, अनुमान, आगम यह तीन प्रमाण कहते हैं; परन्तु उनके सत्य-
असत्यका निर्णय जैनके न्यायग्रंथोंसे जानना।
तथा इस सांख्यमतमें कोई तो ईश्वर को मानते नहीं हैं, कितने ही एक पुरुष को
ईश्वर मानते हैं, कितने ही शिवको, कितने ही नारायणको देव मानते हैं। अपनी इच्छानुसार
कल्पना करते हैं, कुछ निश्चय नहीं है। तथा इस मतमें कितने ही जटा धारण करते हैं,
कितने ही चोटी रखते हैं, कितने ही मुण्डित होते हैं, कितने ही कत्थई वस्त्र पहिनते हैं;
इत्यादि अनेक प्रकारसे भेष धारण करके तत्त्वज्ञानके आश्रयसे महन्त कहलाते हैं।
इस प्रकार सांख्यमतका निरूपण किया।
शिवमत
तथा शिवमतमें दो भेद हैंनैयायिक, वैशेषिक।
नैयायिकमत
वहाँ नैयायिकमतमें सोलह तत्त्व कहते हैंप्रमाण, प्रमेय, संशय, प्रयोजन, दृष्टान्त,
सिद्धान्त, अवयव, तर्क, निर्णय, वाद, जल्प, वितंडा, हेत्वाभास, छल, जाति, निग्रहस्थान।
वहाँ प्रमाण चार प्रकारके कहते हैंप्रत्यक्ष, अनुमान, शब्द, उपमा। तथा आत्मा, देह,
अर्थ, बुद्धि इत्यादि प्रमेय कहते हैं। तथा ‘‘यह क्या है?’’ उसका नाम संशय है। जिसके
अर्थ प्रवृत्ति हो सो प्रयोजन है। जिसे वादी-प्रतिवादी मानें सो दृष्टान्त है। दृष्टान्त द्वारा जिसे
ठहरायें वह सिद्धान्त है। तथा अनुमानके प्रतिज्ञा आदि पाँच अंग वह अवयव हैं। संशय
दूर होने पर किसी विचारसे ठीक हो सो तर्क है। पश्चात् प्रतीतिरूप जानना सो निर्णय है।
आचार्य-शिष्यमें पक्ष-प्रतिपक्ष द्वारा अभ्यास सो वाद है। जाननेकी इच्छारूप कथामें जो छल,
जाति आदि दूषण हो सो जल्प है। प्रतिपक्ष रहित वाद सो वितंडा है। सच्चे हेतु नहीं हैं
ऐसे असिद्ध आदि भेदसहित हेत्वाभास है। छलसहित वचन सो छल है। सच्चे दूषण नहीं हैं
ऐसे दूषणाभास सो जाति है। जिससे प्रतिवादीका निग्रह हो सो निग्रहस्थान है।
इस प्रकार संशयादि तत्त्व कहे हैं, सो यह कोई वस्तुस्वरूप तत्त्व तो हैं नहीं। ज्ञानका
निर्णय करनेको व वाद द्वारा पांडित्य प्रगट करनेको कारणभूत विचाररूप तत्त्व कहे हैं; सो
इनसे परमार्थकार्य क्या होगा? काम-क्रोधादि भावको मिटाकर निराकुल होना सो कार्य है;
वह प्रयोजन तो यहाँ कुछ दिखाया नहीं है; पंडिताईकी नाना युक्तियाँ बनाईं, सो यह भी
एक चातुर्य है; इसलिये यह तत्त्वभूत नहीं हैं।
फि र कहोगेइनको जाने बिना प्रयोजनभूत तत्त्वोंका निर्णय नहीं कर सकते, इसलिये
यह तत्त्व कहे हैं; सो ऐसी परम्परा तो व्याकरणवाले भी कहते हैं किव्याकरण पढ़नेसे