Moksha-Marg Prakashak (Hindi).

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१२६ ] [ मोक्षमार्गप्रकाशक
तथा कर्म इन्द्रियाँ पाँच ही तो नहीं हैं, शरीर के सर्व अंग कार्यकारी हैं। तथा
वर्णन तो सर्व जीवाश्रित है, मनुष्याश्रित ही तो नहीं है, इसलिये सूंड, पूंछ इत्यादि अंग
भी कर्मइन्द्रियाँ हैं; पाँचकी ही संख्या किसलिये कहते हैं?
तथा स्पर्शादिक पाँच तन्मात्रा कहीं, सो रूपादि कुछ अलग वस्तु नहीं हैं, वे तो
परमाणुओं से तन्मय गुण हैं; वे अलग कैसे उत्पन्न हुए? तथा अहंकार तो अमूर्तिक जीव
का परिणाम है, इसलिये यह मूर्तिक गुण कैसे उत्पन्न हुए मानें?
तथा इन पाँचोंसे अग्नि आदि उत्पन्न कहते हैं सो प्रत्यक्ष झूठ है। रूपादिक और अग्नि
आदिकके तो सहभूत गुण-गुणी सम्बन्ध है, कथनमात्र भिन्न है, वस्तुभेद नहीं है। किसी प्रकार
कोई भिन्न होते भासित नहीं होते, कथनमात्रसे भेद उत्पन्न करते हैं। इसलिये रूपादिसे अग्नि
आदि उत्पन्न हुए कैसे कहें? तथा कहनेमें भी गुणीमें गुण हैं, गुणसे गुणी उत्पन्न हुआ कैसे मानें?
तथा इनसे भिन्न एक पुरुष कहते हैं, परन्तु उसका स्वरूप अवक्तव्य कहकर प्रत्युत्तर
नहीं करते, तो कौन समझे? कैसा है, कहाँ है, कैसे कर्ता-हर्ता है, सो बतला। जो बतलायेगा
उसीमें विचार करनेसे अन्यथापना भासित होगा।
इस प्रकार सांख्यमत द्वारा कल्पित तत्त्व मिथ्या जानना।
तथा पुरुषको प्रकृतिसे भिन्न जाननेका नाम मोक्षमार्ग कहते हैं; सो प्रथम तो प्रकृति और
पुरुष कोई है ही नहीं तथा मात्र जाननेसे ही तो सिद्धि होती नहीं है; जानकर रागादिक मिटाने पर
सिद्धि होती है। परन्तु इस प्रकार जाननेसे कुछ रागादिक नहीं घटते। प्रकृतिका कर्त्तव्य माने, आप
अकर्त्ता रहे; तो किसलिये आप रागादिक कम करेगा? इसलिये यह मोक्षमार्ग नहीं है।
तथा प्रकृति-पुरुषका भिन्न होना उसे मोक्ष कहते हैं। सो पच्चीस तत्त्वोंमें चौबीस तत्त्व
तो प्रकृति सम्बन्धी कहे, एक पुरुष भिन्न कहा; सो वे तो भिन्न हैं ही; और कोई जीव
पदार्थ पच्चीस तत्त्वोंमें कहा ही नहीं। तथा पुरुषको ही प्रकृतिका संयोग होने पर जीव संज्ञा
होती है तो पुरुष न्यारे-न्यारे प्रकृतिसहित हैं, पश्चात् साधन द्वारा कोई पुरुष प्रकृतिरहित
होता है
ऐसा सिद्ध हुआ, एक पुरुष न ठहरा।
तथा प्रकृति पुरुषकी भूल है या किसी व्यंतरीवत् भिन्न ही है, जो जीवको आ लगती
है? यदि उसकी भूल है तो प्रकृतिसे इन्द्रियादिक व स्पर्शादिक तत्त्व उत्पन्न हुए कैसे मानें?
और अलग है तो वह भी एक वस्तु है, सर्व कर्तव्य उसका ठहरा। पुरुषका कुछ कर्तव्य
ही नहीं रहा, तब किसलिये उपदेश देते हैं?
इस प्रकार यह मोक्ष मानना मिथ्या है।