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पाँचवाँ अधिकार ][ १२५
अन्यमत निरूपित तत्त्व-विचार
अब, पण्डितपनेके बलसे कल्पित युक्तियों द्वारा नाना मत स्थापित हुए हैं, उनमें जो
तत्त्वादिक माने जाते हैं, उनका निरूपण करते हैंः —
सांख्यमत
वहाँ सांख्यमतमें पच्चीस तत्त्व मानते हैं१। सो कहते हैं — सत्त्व, रज, तमः यह तीन
गुण कहते हैं। वहाँ सत्त्व द्वारा प्रसाद (प्रसन्न) होता है, रजोगुण द्वारा चित्त की चंचलता होती
है, तमोगुण द्वारा मूढ़ता होती है, इत्यादि लक्षण कहते हैं। इनरूप अवस्थाका नाम प्रकृति है;
तथा उससे बुद्धि उत्पन्न होती है; उसीका नाम महतत्त्व है, उससे अहंकार उत्पन्न होता है; उससे
सोलह मात्रा होती हैं। वहाँ पाँच तो ज्ञान इन्द्रियाँ होती हैं — स्पर्शन, रसना, घ्राण, चक्षु, श्रोत्र
तथा एक मन होता है। तथा पाँच कर्म इन्द्रियाँ होती हैं — वचन, चरण, हस्त, लिंग, गुदा।
तथा पाँच तन्मात्रा होती हैं — रूप, रस, गन्ध, स्पर्श, शब्द। तथा रूपसे अग्नि, रस से जल,
गन्ध से पृथ्वी, स्पर्श से पवन, शब्द से आकाश — इस प्रकार हुए कहते हैं। इस प्रकार चौबीस
तत्त्व तो प्रकृतिस्वरूप हैं; इनसे भिन्न निर्गुण कर्ता-भोता एक पुरुष है।
इस प्रकार पच्चीस तत्त्व कहते हैं सो यह कल्पित हैं; क्योंकि राजसादिक गुण आश्रय
बिना कैसे होंगे? इनका आश्रय तो चेतन द्रव्य ही सम्भव है। तथा इनसे बुद्धि हुई कहते
हैं सो बुद्धि नाम तो ज्ञानका है और ज्ञानगुणधारी पदार्थमें यह होती देखी जाती है, तो
इससे ज्ञान हुआ कैसे मानें? कोई कहे — बुद्धि अलग है, ज्ञान अलग है, तब मन तो पहले
सोलह मात्रामें कहा और ज्ञान अलग कहोगे तो बुद्धि किसका नाम ठहरेगा? तथा उससे
अहंकार हुआ कहा सो परवस्तु में ‘‘मैं करता हूँ’’ ऐसा माननेका नाम अहंकार है, साक्षीभूत
जाननेसे तो अहंकार होता नहीं है, तो ज्ञानसे उत्पन्न कैसे कहा जाता है?
तथा अहंकार द्वारा सोलह मात्राएँ कहीं, उनमें पाँच ज्ञानइन्द्रियाँ कहीं, सो शरीरमें
नेत्रादि आकाररूप द्रव्येन्द्रियाँ हैं वे तो पृथ्वी आदिवत् जड़ देखी जाती हैं और वर्णादिकके
जाननेरूप भावइन्द्रियाँ हैं सो ज्ञानरूप हैं, अहंकारका क्या प्रयोजन है? कोई-किसीको अहंकार
बुद्धिरहित देखनेमें आता है? वहाँ अहंकार द्वारा उत्पन्न होना कैसे सम्भव है? तथा मन
कहा, सो इन्द्रियवत् ही मन है; क्योंकि द्रव्यमन शरीररूप है, भावमन ज्ञानरूप है। तथा
पाँच कर्मइन्द्रिय कहते हैं सो यह तो शरीरके अंग हैं, मूर्तिक हैं। अमूर्तिक अहंकारसे इनका
उत्पन्न होना कैसे मानें?
१. प्रकृतमहांस्तताऽहंकारस्तरमाद्गणश्च षोडशकः।
तस्मादपि षोडशकात्पंचभ्यः पंच भूतानि।। (सांख्य का० १२)