Moksha-Marg Prakashak (Hindi).

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१२४ ] [ मोक्षमार्गप्रकाशक
वे कहीं तपश्चरण करनेका, कहीं विषय-सेवनका पोषण करते हैं; उसी प्रकार यह भी पोषण
करते हैं। तथा जिस प्रकार वे कहीं मांस-मदिरा, शिकार आदिका निषेध करते हैं, कहीं उत्तम
पुरुषों द्वारा उनका अंगीकार करना बतलाते हैं; उसी प्रकार यह भी उनका निषेध व अंगीकार
करना बतलाते हैं। ऐसे अनेक प्रकारसे समानता पायी जाती है। यद्यपि नामादिक और हैं;
तथापि प्रयोजनभूत अर्थकी एकता पायी जाती है।
तथा ईश्वर, खुदा आदि मूल श्रद्धानकी तो एकता है और उत्तर श्रद्धानमें बहुत ही
विशेष हैं; वहाँ उनसे भी यह विपरीतरूप विषयकषायके पोषक, हिंसादि पापके पोषक,
प्रत्यक्षादि प्रमाणसे विरुद्ध निरूपण करते हैं।
इसलिये मुसलमानोंका मत महा विपरीतरूप जानना।
इस प्रकार इस क्षेत्र-कालमें जिन-जिन मतोंकी प्रचुर प्रवृत्ति है उनका मिथ्यापना प्रगट
किया।
यहाँ कोई कहे कियह मत मिथ्या हैं तो बड़े राजादिक व बड़े विद्यावान् इन
मतोंमें कैसे प्रवर्तते हैं?
समाधानःजीवोंके मिथ्यावासना अनादिसे है सो इनमें मिथ्यात्वका ही पोषण है। तथा
जीवोंको विषयकषायरूप कार्योंकी चाह वर्तती है सो इनमें विषयकषायरूप कार्योंका ही पोषण है।
तथा राजादिकोंका व विद्यावानोंका ऐसे धर्ममें विषयकषायरूप प्रयोजन सिद्ध होता है। तथा जीव
तो लोकनिंद्यपनाको भी लाँघकर, पाप भी जानकर, जिन कार्योंको करना चाहे उन कार्योंको करते
धर्म बतलायें तो ऐसे धर्ममें कौन नहीं लगेगा? इसलिये इन धर्मोंकी विशेष प्रवृत्ति है।
तथा कदाचित् तू कहेगाइन धर्मोंमें विरागता, दया इत्यादि भी तो कहते हैं? सो
जिस प्रकार झोल दिये बिना खोटा द्रव्य (सिक्का) नहीं चलता; उसी प्रकार सचको मिलाये
बिना झूठ नहीं चलता; परन्तु सर्वके हित प्रयोजनमें विषयकषायका ही पोषण किया है।
जिस प्रकार गीतामें उपदेश देकर युद्ध करनेका प्रयोजन प्रगट किया, वेदान्तमें शुद्ध निरूपण
करके स्वच्छन्द होनेका प्रयोजन दिखाया; उसी प्रकार अन्य जानना। तथा यह काल तो
निकृष्ट है, सो इसमें तो निकृष्ट धर्मकी ही प्रवृत्ति विशेष होती है।
देखो, इसकालमें मुसलमान बहुत प्रधान हो गये, हिन्दू घट गये; हिन्दुओंमें और तो
बढ़ गये, जैनी घट गये। सो यह कालका दोष है।
इस प्रकार इस क्षेत्रमें इस काल मिथ्याधर्मकी प्रवृत्ति बहुत पायी जाती है।