वहाँ कैसे सम्भव है? तथा ज्योतिमें ज्योति मिलने पर यह ज्योति रहती है या विनष्ट हो जाती है?
यदि रहती है तो ज्योति बढ़ती जायगी, तब ज्योतिमें हीनाधिकपना होगा; और विनष्ट हो जाती
है तो अपनी सत्ता नष्ट हो ऐसा कार्य उपादेय कैसे मानें? इसलिये ऐसा भी बनता नहीं है।
यदि एक था तो ब्रह्म ही मायारूप हुआ और अलग था तो माया दूर होने पर ब्रह्ममें मिलता है
तब इसका अस्तित्व रहता है या नहीं? यदि रहता है तो सर्वज्ञको तो इसका अस्तित्व अलग भासित
होगा; तब संयोग होनेसे मिले कहो, परन्तु परमार्थसे तो मिले नहीं हैं। तथा अस्तित्व नहीं रहता
है तो अपना अभाव होना कौन चाहेगा? इसलिये यह भी नहीं बनता।
क्रोधादिक दूर होने पर तो ऐसा कहना बनता है; और वहाँ चेतनाका भी अभाव हुआ मानें
तो पाषाणादि समान जड़ अवस्थाको कैसे भला मानें? तथा भला साधन करनेसे तो जानपना
बढ़ता है, फि र बहुत भला साधन करने पर जानपनेका अभाव होना कैसे मानें? तथा लोकमें
ज्ञानकी महंततासे जड़पनेकी तो महंतता नहीं है; इसलिये यह नहीं बनता।
जैसे वे अवतार हुए मानते हैं वैसे ही यह पैगम्बर हुए मानते हैं। जिस प्रकार वे पुण्य-पापका
लेखा लेना, यथायोग्य दण्डादिक देना ठहराते हैं; उसी प्रकार यह खुदाको ठहराते हैं। तथा
जिस प्रकार वे गाय आदिको पूज्य कहते हैं; उसी प्रकार यह सूअर आदिको कहते हैं। सब
तिर्यंचादिक हैं। तथा जिस प्रकार वे ईश्वरकी भक्तिसे मुक्ति कहते हैं; उसी प्रकार यह खुदाकी
भक्तिसे कहते हैं। तथा जिसप्रकार वे कहीं दयाका पोषण, कहीं हिंसाका पोषण करते हैं; उसी
प्रकार यह भी कहीं महर करनेका, कहीं कतल करनेका पोषण करते हैं। तथा जिस प्रकार