Moksha-Marg Prakashak (Hindi).

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पाँचवाँ अधिकार ][ १२३
ज्योति मिल जाती है; सो यह भी मिथ्या है। दीपककी ज्योति तो मूर्तिक अचेतन है, ऐसी ज्योति
वहाँ कैसे सम्भव है? तथा ज्योतिमें ज्योति मिलने पर यह ज्योति रहती है या विनष्ट हो जाती है?
यदि रहती है तो ज्योति बढ़ती जायगी, तब ज्योतिमें हीनाधिकपना होगा; और विनष्ट हो जाती
है तो अपनी सत्ता नष्ट हो ऐसा कार्य उपादेय कैसे मानें? इसलिये ऐसा भी बनता नहीं है।
तथा एक मोक्ष ऐसा कहते हैं किआत्मा ब्रह्म ही है, मायाका आवरण मिटने पर मुक्ति
ही है; सो यह भी मिथ्या है। यह मायाके आवरण सहित था तब ब्रह्मसे एक था कि अलग था?
यदि एक था तो ब्रह्म ही मायारूप हुआ और अलग था तो माया दूर होने पर ब्रह्ममें मिलता है
तब इसका अस्तित्व रहता है या नहीं? यदि रहता है तो सर्वज्ञको तो इसका अस्तित्व अलग भासित
होगा; तब संयोग होनेसे मिले कहो, परन्तु परमार्थसे तो मिले नहीं हैं। तथा अस्तित्व नहीं रहता
है तो अपना अभाव होना कौन चाहेगा? इसलिये यह भी नहीं बनता।
तथा कितने ही एक प्रकारसे मोक्षको ऐसा भी कहते हैं किबुद्धि आदिकका नाश
होने पर मोक्ष होता है। सो शरीरके अंगभूत मन, इन्द्रियोंके आधीन ज्ञान नहीं रहा। काम-
क्रोधादिक दूर होने पर तो ऐसा कहना बनता है; और वहाँ चेतनाका भी अभाव हुआ मानें
तो पाषाणादि समान जड़ अवस्थाको कैसे भला मानें? तथा भला साधन करनेसे तो जानपना
बढ़ता है, फि र बहुत भला साधन करने पर जानपनेका अभाव होना कैसे मानें? तथा लोकमें
ज्ञानकी महंततासे जड़पनेकी तो महंतता नहीं है; इसलिये यह नहीं बनता।
इसी प्रकार अनेक प्रकार कल्पना द्वारा मोक्षको बतलाते हैं सो कुछ यथार्थ तो जानते
नहीं हैं; संसारअवस्थाकी मुक्तिअवस्थामें कल्पना करके अपनी इच्छानुसार बकते हैं।
इस प्रकार वेदान्तादि मतोंमें अन्यथा निरूपण करते हैं।
मुस्लिममत सम्बन्धी विचार
तथा इसी प्रकार मुसलमानोंके मतमें अन्यथा निरूपण करते हैं। जिस प्रकार वे ब्रह्मको
सर्वव्यापी, एक, निरंजन, सर्वका कर्ता-हर्ता मानते हैं; उसी प्रकार यह खुदाको मानते हैं। तथा
जैसे वे अवतार हुए मानते हैं वैसे ही यह पैगम्बर हुए मानते हैं। जिस प्रकार वे पुण्य-पापका
लेखा लेना, यथायोग्य दण्डादिक देना ठहराते हैं; उसी प्रकार यह खुदाको ठहराते हैं। तथा
जिस प्रकार वे गाय आदिको पूज्य कहते हैं; उसी प्रकार यह सूअर आदिको कहते हैं। सब
तिर्यंचादिक हैं। तथा जिस प्रकार वे ईश्वरकी भक्तिसे मुक्ति कहते हैं; उसी प्रकार यह खुदाकी
भक्तिसे कहते हैं। तथा जिसप्रकार वे कहीं दयाका पोषण, कहीं हिंसाका पोषण करते हैं; उसी
प्रकार यह भी कहीं महर करनेका, कहीं कतल करनेका पोषण करते हैं। तथा जिस प्रकार