क्या सिद्धि है? तथा ऐसे साधनसे किंचित् अतीत-अनागतादिकका ज्ञान हो, व वचनसिद्धि
हो, व पृथ्वी-आकाशादिमें गमनादिककी शक्ति हो, व शरीरमें आरोग्यतादिक हो तो यह तो
सर्व लौकिक कार्य हैं; देवादिकको स्वयमेव ही ऐसी शक्ति पायी जाती है। इनसे कुछ अपना
भला तो होता नहीं है; भला तो विषयकषायकी वासना मिटने पर होता है; यह तो
विषयकषायका पोषण करनेके उपाय हैं; इसलिये यह सर्व साधन किंचित् भी हितकारी नहीं
हैं। इनमें कष्ट बहुत मरणादि पर्यन्त होता है और हित सधता नहीं है; इसलिये ज्ञानी वृथा
ऐसा खेद नहीं करते, कषायी जीव ही ऐसे साधनमें लगते हैं।
दिया कहते हैं और वेश्यादिकको बिना परिणाम (केवल) नामादिकसे ही तरना बतलाते हैं,
कोई ठिकाना ही नहीं है।
एक तो मोक्ष ऐसा कहते हैं कि
प्रथम तो ठाकुर ही संसारीवत् विषयासक्त हो रहे हैं; सो जैसे राजादिक हैं वैसे ही ठाकुर हुए।
तथा दूसरोंसे सेवा करानी पड़ी तब ठाकुरके पराधीनपना हुआ। और यदि वह मोक्ष प्राप्त करके
वहाँ सेवा करता रहे तो जिस प्रकार राजाकी चाकरी करना उसी प्रकार यह भी चाकरी हुई,
वहाँ पराधीन होने पर सुख कैसे होगा? इसलिये यह भी नहीं बनता।
ठहरेगा? सभी ठहरें तो भिन्न इच्छा होने पर परस्पर विरोध होगा। एक ही है तो समानता
नहीं हुई। न्यून है उसको नीचेपनसे उच्च होनेकी आकुलता रही; तब सुखी कैसे होगा?
जिस प्रकार छोटा राजा या बड़ा राजा संसारमें होता है; उसी प्रकार छोटा-बड़ा ईश्वर मुक्तिमें
भी हुआ सो नहीं बनता।