कार्यरूप पृथ्वी आदि होते हैं सो अनित्य हैं। परन्तु ऐसा कहना प्रत्यक्षादिसे विरुद्ध है।
ईन्धनरूप पृथ्वी आदिके परमाणु अग्निरूप होते देखे जाते हैं, अग्नि के परमाणु राखरूप पृथ्वी
होते देखे जाते हैं। जलके परमाणु मुक्ताफल (मोती) रूप पृथ्वी होते देखे जाते हैं। फि र
यदि तू कहेगा
ही ऐसा ठहरता नहीं है। इसलिये सब परमाणुओंकी एक पुद्गलरूप मूर्तिक जाति है, वह
पृथ्वी आदि अनेक अवस्थारूप परिणमित होती है।
यह अन्यत्र
ही अवस्तु हैं, यह सत्तारूप पदार्थ नहीं हैं। पदार्थोंके क्षेत्र-परिणमनादिकका पूर्वापर विचार
करनेके अर्थ इनकी कल्पना करते हैं। तथा दिशा कुछ है ही नहीं; आकाशमें खण्डकल्पना
द्वारा दिशा मानते हैं। तथा आत्मा दो प्रकार से कहते हैं; सो पहले निरूपण किया ही
है। तथा मन कोई पृथक् पदार्थ नहीं है। भावमन तो ज्ञानरूप है सो आत्माका स्वरूप
है, द्रव्यमन परमाणुओंका पिण्ड है सो शरीरका अंग है। इस प्रकार यह द्रव्य कल्पित जानना।
द्वेष, स्नेह, गुरुत्व, द्रव्यत्व। सो इनमें स्पर्शादिक गुण तो परमाणुओंमें पाये जाते हैं; परन्तु
पृथ्वीको गंधवती ही कहना, जलको शीत स्पर्शवान ही कहना इत्यादि मिथ्या है; क्योंकि किसी
पृथ्वीमें गंधकी मुख्यता भासित नहीं होती, कोई जल उष्ण देखा जाता है
रुकता है, इसलिये मूर्तिक है और आकाश अमूर्तिक सर्वव्यापी है। भींतमें आकाश रहे और
शब्दगुण प्रवेश न कर सके, यह कैसे बनेगा? तथा संख्यादिक हैं सो वस्तुमें तो कुछ हैं
नहीं, अन्य पदार्थकी अपेक्षा अन्य पदार्थकी हीनाधिकता जाननेको अपने ज्ञानमें संख्यादिककी
कल्पना द्वारा विचार करते हैं। तथा बुद्धि आदि है सो आत्माका परिणमन है, वहाँ बुद्धि
नाम ज्ञानका है तो आत्माका गुण है ही, और मनका नाम है तो मन तो द्रव्योंमें कहा ही