Moksha-Marg Prakashak (Hindi).

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पाँचवाँ अधिकार ][ १२९
वहाँ द्रव्य नौ प्रकार हैंपृथ्वी, जल, अग्नि, वायु, आकाश, काल, दिशा, आत्मा,
मन। वहाँ पृथ्वी, जल, अग्नि और वायुके परमाणु भिन्न-भिन्न हैं; वे परमाणु नित्य हैं; उनसे
कार्यरूप पृथ्वी आदि होते हैं सो अनित्य हैं। परन्तु ऐसा कहना प्रत्यक्षादिसे विरुद्ध है।
ईन्धनरूप पृथ्वी आदिके परमाणु अग्निरूप होते देखे जाते हैं, अग्नि के परमाणु राखरूप पृथ्वी
होते देखे जाते हैं। जलके परमाणु मुक्ताफल (मोती) रूप पृथ्वी होते देखे जाते हैं। फि र
यदि तू कहेगा
वे परमाणु चले जाते हैं, दूसरे ही परमाणु उन रूप होते हैं, सो प्रत्यक्षको
असत्य ठहराता है। ऐसी कोई प्रबल युक्ति कह तो इसी प्रकार मानें, परन्तु केवल कहनेसे
ही ऐसा ठहरता नहीं है। इसलिये सब परमाणुओंकी एक पुद्गलरूप मूर्तिक जाति है, वह
पृथ्वी आदि अनेक अवस्थारूप परिणमित होती है।
तथा इन पृथ्वी आदिका कहीं पृथक् शरीर ठहराते हैं, सो मिथ्या ही है; क्योंकि
उसका कोई प्रमाण नहीं है। और पृथ्वी आदि तो परमाणुपिण्ड हैं; इनका शरीर अन्यत्र,
यह अन्यत्र
ऐसा सम्भव नहीं है, इसलिये यह मिथ्या है। तथा जहाँ पदार्थ अटके नहीं
ऐसी जो पोल उसे आकाश कहते हैं; क्षण, पल आदिको काल कहते हैं; सो यह दोनों
ही अवस्तु हैं, यह सत्तारूप पदार्थ नहीं हैं। पदार्थोंके क्षेत्र-परिणमनादिकका पूर्वापर विचार
करनेके अर्थ इनकी कल्पना करते हैं। तथा दिशा कुछ है ही नहीं; आकाशमें खण्डकल्पना
द्वारा दिशा मानते हैं। तथा आत्मा दो प्रकार से कहते हैं; सो पहले निरूपण किया ही
है। तथा मन कोई पृथक् पदार्थ नहीं है। भावमन तो ज्ञानरूप है सो आत्माका स्वरूप
है, द्रव्यमन परमाणुओंका पिण्ड है सो शरीरका अंग है। इस प्रकार यह द्रव्य कल्पित जानना।
तथा चौबीस गुण कहते हैंस्पर्श, रस, गंध, वर्ण, शब्द, संख्या, विभाग, संयोग,
परिणाम, पृथक्त्व, परत्व, अपरत्व, बुद्धि, सुख, दुःख, इच्छा, धर्म, अधर्म, प्रयत्न, संस्कार,
द्वेष, स्नेह, गुरुत्व, द्रव्यत्व। सो इनमें स्पर्शादिक गुण तो परमाणुओंमें पाये जाते हैं; परन्तु
पृथ्वीको गंधवती ही कहना, जलको शीत स्पर्शवान ही कहना इत्यादि मिथ्या है; क्योंकि किसी
पृथ्वीमें गंधकी मुख्यता भासित नहीं होती, कोई जल उष्ण देखा जाता है
इत्यादि प्रत्यक्षादिसे
विरुद्ध है। तथा शब्दको आकाशका गुण कहते हैं सो मिथ्या है; शब्द तो भींत आदिसे
रुकता है, इसलिये मूर्तिक है और आकाश अमूर्तिक सर्वव्यापी है। भींतमें आकाश रहे और
शब्दगुण प्रवेश न कर सके, यह कैसे बनेगा? तथा संख्यादिक हैं सो वस्तुमें तो कुछ हैं
नहीं, अन्य पदार्थकी अपेक्षा अन्य पदार्थकी हीनाधिकता जाननेको अपने ज्ञानमें संख्यादिककी
कल्पना द्वारा विचार करते हैं। तथा बुद्धि आदि है सो आत्माका परिणमन है, वहाँ बुद्धि
नाम ज्ञानका है तो आत्माका गुण है ही, और मनका नाम है तो मन तो द्रव्योंमें कहा ही