लक्षणभूत तो यह गुण हैं नहीं, अव्याप्तपनेसे लक्षणाभास है। तथा स्निग्धादि पुद्गलपरमाणुमें
पाये जाते हैं, सो स्निग्ध गुरुत्व इत्यादि तो स्पर्शन इन्द्रिय द्वारा जाने जाते हैं, इसलिये
स्पर्शगुणमें गर्भित हुए, अलग किसलिये कहे? तथा द्रव्यत्वगुण जलमें कहा, सो ऐसे तो अग्नि
आदिमें ऊर्ध्वगमनत्वादि पाये जाते हैं। या तो सर्व कहना थे या सामान्यमें गर्भित करना
थे। इस प्रकार यह गुण कहे वे भी कल्पित हैं।
नहीं हैं, चेष्टाएँ तो बहुत ही प्रकारकी होती हैं। तथा इनको अलग ही तत्त्व संज्ञा कही; सो
या तो अलग पदार्थ हों तो उन्हें अलग तत्त्व कहना था, या काम-क्रोधादि मिटानेमें विशेष
प्रयोजनभूत हों तो तत्त्व कहना था; सो दोनों ही नहीं है। और ऐसे ही कह देना हो तो
पाषाणादिककी अनेक अवस्थाएँ होती हैं सो कहा करो, कुछ साध्य नहीं हैं।
नाम समवाय है। यह सामान्यादिक तो बहुतोंको एक प्रकार द्वारा व एक वस्तुमें भेद-कल्पना
द्वारा व भेदकल्पना अपेक्षा सम्बन्ध माननेसे अपने विचारमें ही होते हैं, कोई अलग पदार्थ
तो हैं नहीं। तथा इनके जाननेसे काम-क्रोधादि मिटानेरूप विशेष प्रयोजनकी भी सिद्धि नहीं
है, इसलिये इनको तत्त्व किसलिये कहा? और ऐसे ही तत्त्व कहना थे तो प्रमेयत्वादि वस्तुके
अनन्त धर्म हैं व सम्बन्ध, आधारादिक कारकोंके अनेक प्रकार वस्तुमें सम्भवित हैं, इसलिये
या तो सर्व कहना थे या प्रयोजन जानकर कहना थे। इसलिये यह सामान्यादिक तत्त्व भी
वृथा ही कहे हैं।
तथा वैशेषिक दो ही प्रमाण मानते हैं