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पाँचवाँ अधिकार ][ १३५
बिना किसके हुआ? जो सर्व क्षेत्र-कालकी जाने वही सर्वज्ञ, और नहीं जानता तो निषेध
कैसे करता है?
तथा धर्म-अधर्म लोकमें प्रसिद्ध हैं। यदि वे कल्पित हों तो सर्वजन-सुप्रसिद्ध कैसे
होते? तथा धर्म-अधर्मरूप परिणति होती देखी जाती है, उससे वर्तमानमें ही सुखी-दुःखी होते
हैं; इन्हें कैसे न मानें? और मोक्षका होना अनुमानमें आता है। क्रोधादिक दोष किसीके
हीन हैं, किसीके अधिक हैं; तो मालूम होता है किसीके इनकी नास्ति भी होती होगी।
और ज्ञानादि गुण किसीके हीन, किसीके अधिक भासित होते हैं; इसलिये मालूम होता है
किसीके सम्पूर्ण भी होते होंगे। इसप्रकार जिसके समस्त दोषकी हानि, गुणोंकी प्राप्ति हो;
वही मोक्ष-अवस्था है।
तथा पुण्य-पापका फल भी देखते हैं। कोई उद्यम करने पर भी दरिद्री रहता है,
किसीके स्वयमेव लक्ष्मी होती है; कोई शरीरका यत्न करने पर भी रोगी रहता है, किसीके
बिना ही यत्न निरोगता रहती है — इत्यादि प्रत्यक्ष देखा जाता है; सो इसका कारण कोई
तो होगा? जो इसका कारण वही पुण्य-पाप है।
तथा परलोक भी प्रत्यक्ष-अनुमानसे भासित होता है। व्यंतरादि हैं वे ऐसा कहते देखे
जाते हैं — ‘‘मैं अमुक था सो देव हुआ हूँ।’’ तथा तू कहेगा — ‘‘यह तो पवन है’’; सो
हम तो ‘‘मैं हूँ’’ इत्यादि चेतनाभाव जिसके आश्रयसे पाये जाते हैं उसीको आत्मा कहते हैं,
तू उसका नाम पवन कहता है। परन्तु पवन तो भींत आदिसे अटकती है, आत्मा मुँदा
(बन्द) होने पर भी अटकता नहीं है; इसलिये पवन कैसे मानें?
तथा जितना इन्द्रियगोचर है उतना ही लोक कहता है; परन्तु तेरे इन्द्रियगोचर तो
थोड़े से भी योजन दूरवर्ती क्षेत्र और थोड़ा-सा अतीत-अनागत काल — ऐसे क्षेत्र-कालवर्ती भी
पदार्थ नहीं हो सकते, और दूर देशकी व बहुत कालकी बातें परम्परासे सुनते ही हैं; इसलिये
सबका जानना तेरे नहीं है, तू इतना ही लोक किस प्रकार कहता है?
तथा चार्वाकमतमें कहते हैं कि — पृथ्वी, अप, तेज, वायु, आकाश मिलनेसे चेतना
हो आती है। सो मरने पर पृथ्वी आदि यहाँ रहे, चेतनावान पदार्थ गया तो व्यंतरादि हुआ;
जो प्रत्यक्ष भिन्न-भिन्न देखे जाते हैं। तथा एक शरीरमें पृथ्वी आदि तो भिन्न-भिन्न भासित
होते हैं, चेतना एक भासित होती है। यदि पृथ्वी आदिके आधारसे चेतना हो तो हाड़,
रक्त, उच्छ्वासादिकके अलग-अलग चेतना होगी। तथा हाथ आदिको काटने पर जिस प्रकार
उसके साथ वर्णादिक रहते हैं, उसी प्रकार चेतना भी रहेगी। तथा अहंकार, बुद्धि तो चेतनाके
हैं, सो पृथ्वी आदिरूप शरीर तो यहाँ ही रहा, तब व्यंतरादि पर्यायमें पूर्वपर्यायका अहंपना