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१३६ ] [ मोक्षमार्गप्रकाशक
देखा जाता है सो किस प्रकार होता है? तथा पूर्वपर्यायके गुप्त समाचार प्रगट करते हैं,
सो यह जानना किसके साथ गया? जिसके साथ जानना गया वही आत्मा है।
तथा चार्वाकमतमें खाना, पीना, भोग-विलास करना इत्यादि स्वच्छन्द वृत्तिका उपदेश
है; परन्तु ऐसे तो जगत स्वयमेव ही प्रवर्तता है। वहाँ शास्त्रादि बनाकर क्या भला होनेका
उपदेश दिया? तू कहेगा — तपश्चरण, शील, संयमादि छुड़ानेके अर्थ उपदेश दिया; तो इन
कार्योंमें तो कषाय घटनेसे आकुलता घटती है, इसलिये यहीं सुखी होना होता है, तथा यश
आदि होता है; तू इनको छुड़ाकर क्या भला करता है? विषयासक्त जीवोंको सुहाती बातें
कहकर अपना व औरोंका बुरा करनेका भय नहीं है; स्वच्छन्द होकर विषयसेवनके अर्थ ऐसी
युक्ति बनाता है।
इस प्रकार चार्वाकमतका निरूपण किया।
अन्यमत निराकरण उपसंहार
इसी प्रकार अन्य अनेक मत हैं वे झूठी कल्पित युक्ति बनाकर विषय-कषायासक्त
पापी जीवों द्वारा प्रगट किये गये हैं; उनके श्रद्धानादिक द्वारा जीवोंका बुरा होता है। तथा
एक जिनमत है सो ही सत्यार्थका प्ररूपक है, सर्वज्ञ – वीतरागदेव द्वारा भाषित है; उसके
श्रद्धानादिकसे ही जीवोंका भला होता है।
ऐसे जिनमतमें जीवादि तत्त्वोंका निरूपण किया है; प्रत्यक्ष-परोक्ष दो प्रमाण कहे हैं;
सर्वज्ञवीतराग अर्हंतदेव हैं; बाह्य-अभ्यंतर परिग्रहरहित निर्ग्रन्थ गुरु हैं। इनका वर्णन इस ग्रंथमें
आगे विशेष लिखेंगे सो जानना।
यहाँ कोई कहे — तुम्हारे राग-द्वेष है, इसलिये तुम अन्यमतका निषेध करके अपने
मतको स्थापित करते हो?
उससे कहते हैं — यथार्थ वस्तुका प्ररूपण करनेमें राग-द्वेष नहीं है। कुछ अपना
प्रयोजन विचारकर अन्यथा प्ररूपण करें तो राग-द्वेष नाम पाये।
फि र वह कहता है — यदि राग-द्वेष नहीं है तो अन्यमत बुरे और जैनमत भला ऐसा
किस प्रकार कहते हो? साम्यभाव हो तो सबको समान जानो, मतपक्ष किसलिये करते हो?
उससे कहते हैं — बुरेको बुरा कहते हैं, भलेको भला कहते हैं; इसमें राग-द्वेष क्या
किया? तथा बुरे-भले को समान जानना तो अज्ञानभाव है; साम्यभाव नहीं है।
फि र वह कहता है कि — सर्व मतोंका प्रयोजन तो एक ही है, इसलिये सबको समान
जानना?