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पाँचवाँ अधिकार ][ १३९
अन्यमतके ग्रन्थोद्धरणोंसे जैनधर्मकी समीचीनता और प्राचीनता
अब अन्यमतोंके शास्त्रोंकी ही साक्षीसे जिनमतकी समीचीनता व प्राचीनता प्रगट करते
हैंः —
‘‘बड़ा योगवासिष्ठ’’ छत्तीस हजार श्लोक प्रमाण है, उसके प्रथम वैराग्य – प्रकरणमें
अहंकारनिषेध अध्यायमें वसिष्ठ और रामके संवादमें ऐसा कहा है : —
रामोवाच — नाहं रामो न मे वांछा भावेषु च न मे मनः।
शांतिमास्थातुमिच्छामि स्वात्मन्येव जिनो यथा ।।१।।
इसमें रामजीने जिन-समान होनेकी इच्छा की, इसलिये रामजीसे जिनदेवका उत्तमपना
प्रगट हुआ और प्राचीनपना प्रगट हुआ।
तथा ‘‘दक्षिणामूर्ति-सहस्रनाम’’ में कहा हैः —
शिवोवाच – जैनमार्गरतो जैन जिन क्रोधो जितामयः।
यहाँ भगवत्का नाम जैनमार्गमें रत और जैन कहा, सो इसमें जैनमार्गकी प्रधानता
व प्राचीनता प्रगट हुई।
तथा ‘‘वैशम्पायनसहस्रनाम’’ में कहा है : —
कालनेमिर्महावीरः शूरः शौरिजिनेश्वरः।
यहाँ भगवानका नाम जिनेश्वर कहा, इसलिये जिनेश्वर भगवान हैं।
तथा दुर्वासाऋषिकृत ‘‘महिम्निस्तोत्र’’ में ऐसा कहा हैः —
तत्तद्दर्शनमुख्यशक्तिरिति च त्वं ब्रह्मकर्मेश्वरी।
कर्त्तार्हन् पुरुषो हरिश्च सविता बुद्धः शिवस्त्वं गुरुः ।।१।।
यहाँ — ‘‘अरहंत तुम हो’’ इस प्रकार भगवन्तकी स्तुति की, इसलिये अरहन्तके
भगवानपना प्रगट हुआ।
तथा ‘‘हनुमन्नाटक’’ में ऐसा कहा है : —
यं शैवाः समुपासते शिव इति ब्रह्मेति वेदान्तिनः
बौद्धा बुद्ध इति प्रमाणपटवः कर्त्तेति नैयायिकाः।
१. अर्थात् मैं राम नहीं हूँ, मेरी कुछ इच्छा नहीं है और भावों व पदार्थोंमें मेरा मन नहीं है। मैं तो जिनदेवके
समान अपनी आत्मामें ही शान्ति स्थापना करना चाहता हूँ।