सभी मतवाले कहते हैं। सरागभाव होने पर तत्काल आकुलता होती है, निंदनीय होता है,
और आगामी बुरा होना भासित होता है। इसलिये जिसमें वीतरागभावका प्रयोजन है ऐसा
जैनमत ही इष्ट है। जिसमें सरागभावके प्रयोजन प्रगट किये हैं ऐसे अन्यमत अनिष्ट हैं इन्हें
समान कैसे मानें?
होंगे, इसलिये करुणाभावसे यथार्थ निरूपण किया है। कोई बिना दोष दुःख पाता हो, विरोध
उत्पन्न करे, तो हम क्या करें? जैसे
हो तो क्या करें? इसी प्रकार यदि पापियोंके भयसे धर्मोपदेश न दें तो जीवोंका भला कैसे
होगा? ऐसा तो कोई उपदेश है नहीं जिससे सभी चैन पायें? तथा वे विरोध उत्पन्न करते
हैं; सो विरोध तो परस्पर करे तो होता है; परन्तु हम लड़ेंगे नहीं, वे आप ही उपशांत
हो जायेंगे। हमें तो अपने परिणामोंका फल होगा।
हो तो वीतरागभाव होने पर ही महंतपना भासित हो; परन्तु जो जीव वीतरागी नहीं हैं और
अपनी महंतता चाहते हैं, उन्होंने सरागभाव होने पर भी महंतता मनानेके अर्थ कल्पित युक्ति
द्वारा अन्यथा निरूपण किया है। वे अद्वैतब्रह्मादिकके निरूपण द्वारा जीव-अजीवके और
स्वच्छन्दवृत्तिके पोषण द्वारा आस्रव-संवरादिकके और सकषायीवत् व अचेतनवत् मोक्ष कहने
द्वारा मोक्षके अयथार्थ श्रद्धानका पोषण करते हैं; इसलिये अन्यमतोंका अन्यथापना प्रगट किया
है। इनका अन्यथापना भासित हो तो तत्त्वश्रद्धानमें रुचिवान हो, और उनकी युक्तिसे भ्रम
उत्पन्न न हो।