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पाँचवाँ अधिकार ][ १४१
तृष्णादि रहित, ध्यानमुद्राधारी, सर्वाश्रम द्वारा पूजित कहा है; उनके अनुसार अर्हत राजाने प्रवृत्ति
की ऐसा कहते हैं। सो जिस प्रकार राम-कृष्णादि अवतारोंके अनुसार अन्यमत हैं, उसी प्रकार
ऋषभावतारके अनुसार जैनमत है; इस प्रकार तुम्हारे मत ही द्वारा जैनमत प्रमाण हुआ।
यहाँ इतना विचार और करना चाहिये — कृष्णादि अवतारोंके अनुसार विषय-कषायोंकी
प्रवृत्ति होती है; ऋषभावतारके अनुसार वीतराग साम्यभावकी प्रवृत्ति होती है। यहाँ दोनों
प्रवृत्तियोंको समान माननेसे धर्म-अधर्मका विशेष नहीं रहेगा और विशेष माननेसे जो भली हो
वह अंगीकार करना।
तथा ‘‘दशावतार चरित्र’’ में — ‘‘बद्धवा पद्मासनं यो नयनयुगमिदं न्यस्य नासाग्रदेशे’’
इत्यादि बुद्धावतारका स्वरूप अरहंतदेव समान लिखा है; सो ऐसा स्वरूप पूज्य है तो अरहंतदेव
सहज ही हुए।
तथा ‘‘काशीखंड’’ में देवदास राजाको सम्बोधकर राज्य छुड़ाया; वहाँ नारायण तो
विनयकीर्ति यति हुआ, लक्ष्मीको विनयश्री आर्यिका की, गरुड़को श्रावक किया — ऐसा कथन
है। सो जहाँ सम्बोधन करना हुआ वहाँ जैनी भेष बनाया; इसलिए जैन हितकारी प्राचीन
प्रतिभासित होते हैं।
तथा ‘‘प्रभास पुराण’’में ऐसा कहा हैः —
भवस्य पश्चिमे भागे वामनेन तपः कृतम्।
तेनैव तपसाकृष्टः शिवः प्रत्यक्षतां गतः ।।१।।
पद्मासनमासीनः श्याममूर्तिर्दिगम्बरः।
नेमिनाथः शिवेत्येवं नाम चक्रेअस्य वामनः ।।२।।
कलिकाले महाघोरे सर्व पापप्रणाशकः।
दर्शनात्स्पर्शनादेव कोटियज्ञफलप्रदः ।।३।।
यहाँ वामनको पद्मासन दिगम्बर नेमिनाथका दर्शन हुआ कहा है; उसीका नाम शिव
कहा है। तथा उसके दर्शनादिकसे कोटियज्ञका फल कहा है, सो ऐसा नेमिनाथका स्वरूप
तो जैनी प्रत्यक्ष मानते हैं; सो प्रमाण ठहरा।
तथा ‘‘प्रभास पुराण’’ में कहा है : —
रैवताद्रौ जिनो नेमिर्युगादिर्विमलाचले।
ऋषीणामाश्रमादेव मुक्तिमार्गस्य कारणम्।।१।।