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१४२ ] [ मोक्षमार्गप्रकाशक
यहाँ नेमिनाथको जिनसंज्ञा कही, उनके स्थानको ऋषिका आश्रम मुक्तिका कारण कहा
और युगादिके स्थानको भी ऐसा ही कहा; इसलिये उत्तम पूज्य ठहरे।
तथा ‘‘नगर पुराण’’ में भवावतार रहस्यमें ऐसा कहा हैः —
अकारादिहकारन्तमूर्द्धाधोरेफ संयुतम्।
नादविन्दुकलाक्रान्तं चन्द्रमण्डलसन्निभम् ।।१।।
एतद्देवि परं तत्त्वं यो विजनातितत्त्वतः।
संसारबन्धनं छित्वा स गच्छेत्परमां गतिम् ।।२।।
यहाँ ‘अर्हं’ ऐसे पदको परमतत्त्व कहा है। उसके जाननेसे परमगतिकी प्राप्ति कही;
सो ‘अर्हं’ पद जैनमत उक्त है।
तथा ‘‘नगर पुराण’’ में कहा हैः —
दशभिर्भोजितैर्विप्रै यत्फलं जायते कृते।
मुनेरर्हत्सुभक्तस्य तत्फलं जायते कलौ ।।१।।
यहाँ कृतयुगमें दस ब्राह्मणोंको भोजन करनेका जितना फल कहा, उतना फल कलियुगमें
अर्हंतभक्त मुनिको भोजन करानेका कहा है; इसलिये जैनमुनि उत्तम ठहरे।
तथा ‘‘मनुस्मृति’’ में कहा हैः —
कुलादिबीजं सर्वेषां प्रथमो विमलवाहनः।
चक्षुष्मान् यशस्वी वाभिचन्द्रोअथ प्रसेनजित् ।।१।।
मरुदेवी च नाभिश्च भरते कुल सत्तमाः।
अष्टमो मरुदेव्यां तु नाभेर्जात उरक्रमः ।।२।।
दर्शयन् वर्त्म वीराणां सुरसुरनमस्कृतः।
नीतित्रितयकर्त्ता यो युगादौ प्रथमो जिनः ।।३।।
यहाँ विमलवाहनादिक मनु कहे, सो जैनमें कुलकरोंके नाम कहे हैं और यहाँ प्रथमजिन
युगके आदिमें मार्गका दर्शक तथा सुरासर द्वारा पूजित कहा; सो इसी प्रकार है तो जैनमत
युगके आदिसे ही है, और प्रमाणभूत कैसे न कहें?
तथा ऋग्वेदमें ऐसा कहा हैः —
ओऽम् त्रैलोक्य प्रतिष्ठितान् चतुर्विशतितीर्थंकरान् ऋषभाद्यान् वर्द्धमानान्तान् सिद्धान् शरणं
प्रपद्ये। ओऽम् पवित्र नग्नमुपविस्पृसामहे एषां नग्नं येषां जातं येषां वीरं सुवीरं......इत्यादि।