तथा ऐसा कहा हैः
हवे शक्रमर्जितं तद्वर्द्धमानपुरुहूतमिंद्रंमाहरिति स्वाहा। ओऽम् नग्नं सुधीरं दिग्वाससं ब्रह्मगर्ब्भं
सनातनं उपैमि वीरं पुरुषमर्हंतमादित्यवर्णं तमसः परस्तात स्वाहा। ओऽम् स्वस्तिन इन्द्रो वृद्धश्रवा
स्वस्तिनः पूषा विश्ववेदाः स्वस्तिनस्तार्क्ष्यों अरिष्टनेमि स्वस्तिनो बृहस्पतिर्दधातु।
दीर्घायुस्त्वायुबलायुर्वा शुभाजातायु। ओऽम् रक्ष रक्ष अरिष्टनेमिः स्वाहा। वामदेव
शान्त्यर्थमनुविधीयते सोऽस्माकं अरिष्टनेमिः स्वाहा।
इच्छुक हो वह पक्षपात छोड़कर सच्चे जैनधर्मको अंगीकार करो।
निषेध किया। वृषभावतारमें वीतराग संयमका मार्ग दिखाया और कृष्णावतारमें परस्त्री रमणादि
विषयकषायादिकका मार्ग दिखाया। अब यह संसारी किसका कहा करे? किसके अनुसार
प्रवर्त्ते? और इन सब अवतारोंको एक बतलाते हैं, परन्तु एक भी कदाचित् किसी प्रकार
कहते हैं व प्रवर्त्तते हैं; तो इसे उनके कहनेकी व प्रवर्त्तनेकी प्रतीति कैसे आये?
आदि कार्य हों तो यह भी मानें, परन्तु वह तो होते नहीं हैं। तथा लड़ना आदि कार्य
करने पर भी क्रोधादि हुए न मानें, तो अलग क्रोधादि कौन हैं जिनका निषेध किया? इसलिये
ऐसा नहीं बनता, पूर्वापर विरोध है। गीतामें वीतरागता बतलाकर लड़नेका उपदेश दिया,
सो यह प्रत्यक्ष विरोध भासित होता है। तथा ऋषीश्वरादिकों द्वारा श्राप दिया बतलाते हैं,
सो ऐसा क्रोध करने पर निंद्यपना कैसे नहीं हुआ? इत्यादि जानना।