Moksha-Marg Prakashak (Hindi).

< Previous Page   Next Page >


Page 133 of 350
PDF/HTML Page 161 of 378

 

background image
-
पाँचवाँ अधिकार ][ १४३
तथा यजुर्वेदमें ऐसा कहा है :
ओऽम् नमो अर्हतो ऋषभाय।
तथा ऐसा कहा हैः
ओऽम् ऋषभपवित्रं पुरुहूतमध्वज्ञं यज्ञेषु नग्नं परमं माहसंस्तुतं वरं शत्रुं जयंतं
पशुरिद्रमाहतिरिति स्वाहा। ओऽम् त्रातारमिंद्रं ऋषभं वदन्ति। अमृतारमिंद्रं हवे सुगतं सुपार्श्वमिंद्रं
हवे शक्रमर्जितं तद्वर्द्धमानपुरुहूतमिंद्रंमाहरिति स्वाहा। ओऽम् नग्नं सुधीरं दिग्वाससं ब्रह्मगर्ब्भं
सनातनं उपैमि वीरं पुरुषमर्हंतमादित्यवर्णं तमसः परस्तात स्वाहा। ओऽम् स्वस्तिन इन्द्रो वृद्धश्रवा
स्वस्तिनः पूषा विश्ववेदाः स्वस्तिनस्तार्क्ष्यों अरिष्टनेमि स्वस्तिनो बृहस्पतिर्दधातु।
दीर्घायुस्त्वायुबलायुर्वा शुभाजातायु। ओऽम् रक्ष रक्ष अरिष्टनेमिः स्वाहा। वामदेव
शान्त्यर्थमनुविधीयते सोऽस्माकं अरिष्टनेमिः स्वाहा।
सो यहाँ जैन तीर्थंकरोंके जो नाम हैं उनके पूजनादि कहे। तथा यहाँ यह भासित
हुआ किइनके पीछे वेदरचना हुई है।
इस प्रकार अन्यमतके ग्रन्थोंकी साक्षीसे भी जिनमतकी उत्तमता और प्राचीनता दृढ़
हुई। तथा जिनमतको देखनेसे वे मत कल्पित ही भासित होते हैं; इसलिये जो अपने हितका
इच्छुक हो वह पक्षपात छोड़कर सच्चे जैनधर्मको अंगीकार करो।
तथा अन्यमतोंमें पूर्वापर विरोध भासित होता है। पहले अवतारमें वेदका उद्धार किया,
वहाँ यज्ञादिकमें हिंसादिकका पोषण किया और बुद्धावतारमें यज्ञके निंदक होकर हिंसादिकका
निषेध किया। वृषभावतारमें वीतराग संयमका मार्ग दिखाया और कृष्णावतारमें परस्त्री रमणादि
विषयकषायादिकका मार्ग दिखाया। अब यह संसारी किसका कहा करे? किसके अनुसार
प्रवर्त्ते? और इन सब अवतारोंको एक बतलाते हैं, परन्तु एक भी कदाचित् किसी प्रकार
कहते हैं व प्रवर्त्तते हैं; तो इसे उनके कहनेकी व प्रवर्त्तनेकी प्रतीति कैसे आये?
तथा कहीं क्रोधादि कषायोंका व विषयोंका निषेध करते हैं, कहीं लड़नेका व विषयादि
सेवनका उपदेश देते हैं; वहाँ प्रारब्ध बतलाते हैं। सो बिना क्रोधादि हुए अपने आप लड़ना
आदि कार्य हों तो यह भी मानें, परन्तु वह तो होते नहीं हैं। तथा लड़ना आदि कार्य
करने पर भी क्रोधादि हुए न मानें, तो अलग क्रोधादि कौन हैं जिनका निषेध किया? इसलिये
ऐसा नहीं बनता, पूर्वापर विरोध है। गीतामें वीतरागता बतलाकर लड़नेका उपदेश दिया,
सो यह प्रत्यक्ष विरोध भासित होता है। तथा ऋषीश्वरादिकों द्वारा श्राप दिया बतलाते हैं,
सो ऐसा क्रोध करने पर निंद्यपना कैसे नहीं हुआ? इत्यादि जानना।
१. यजुर्वेद अ० २५ म० १६ अष्ठ ९१ अ० वर्ग १