Moksha-Marg Prakashak (Hindi).

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१४४ ] [ मोक्षमार्गप्रकाशक
तथा ‘‘अपुत्रस्य गतिर्नास्ति’’ ऐसा भी कहते हैं और ‘‘भारत’’ में ऐसा भी कहा हैः
अनेकानि सहस्राणि कुमार ब्रह्मचारिणाम्।
दिवं गतानि राजेन्द्र अकृत्वा कुलसन्ततिम् ।।१।।
यहाँ कुमार ब्रह्मचारियोंको स्वर्ग गये बतलाया; सो यह परस्पर विरोध है। तथा
‘‘ऋषीश्वरभारत’’ में ऐसा कहा हैः
मद्यमांसाशनं रात्रौ भोजन कन्दभक्षणम्।
ये कुर्वन्ति वृथास्तेषां तीर्थयात्रां जपस्तपः ।।१।।
वृथा एकादशी प्रोक्ता वृथा जागरणं हरेः।
वृथा च पौष्करी यात्रा कृत्स्नं चान्द्रायणं वृथा ।।२।।
चातुर्मास्ये तु सम्प्राप्ते रात्रिभोज्यं करोति यः।
तस्य शुद्धिर्न विद्येत् चान्द्रायणशतैरपि ।।३।।
इसमें मद्य-मांसादिकका व रात्रिभोजन व चौमासेमें विशेषरूपसे रात्रिभोजनका व कन्दफल-
भक्षणका निषेध किया; तथा बड़े पुरुषोंको मद्य-मांसादिकका सेवन करना कहते हैं, व्रतादिमें
रात्रिभोजन व कन्दादि भक्षण स्थापित करते हैं; इस प्रकार विरुद्ध निरूपण करते हैं।
इसी प्रकार अनेक पूर्वापर विरुद्ध वचन अन्यमतके शास्त्रोंमें हैं सो क्या किया जाये?
कहीं तो पूर्व-परम्परा जानकर विश्वास करानेके अर्थ यथार्थ कहा और कहीं विषयकषायका
पोषण करनेके अर्थ अन्यथा कहा; सो जहाँ पूर्वापर विरोध हो उनके वचन प्रमाण कैसे करें?
अन्यमतोंमें जो क्षमा, शील, सन्तोषादिकका पोषण करनेवाले वचन हैं वे तो जैन मतमें
पाये जाते हैं, और विपरीत वचन हैं वे उनके कल्पित हैं। जिनमतानुसार वचनोंके विश्वाससे
उनके विपरीत वचनके भी श्रद्धानादिक हो जाते हैं, इसलिये अन्यमतका कोई अंग भला देखकर
भी वहाँ श्रद्धानादिक नहीं करना। जिस प्रकार विषमिश्रित भोजन हितकारी नहीं है, उसी
प्रकार जानना।
तथा यदि कोई उत्तमधर्मका अंग जिनमतमें न पाया जाये और अन्यमतमें पाया जाये,
अथवा किसी निषिद्ध धर्मका अंग जिनमतमें पाया जाये और अन्यत्र न पाया जाये तो
अन्यमतका आदर करो; परन्तु ऐसा सर्वथा होता ही नहीं; क्योंकि सर्वज्ञके ज्ञानमें कुछ छिपा
नहीं है। इसलिये अन्यमतोंके श्रद्धानादिक छोड़कर जिनमतके दृढ़ श्रद्धानादिक करना।