उदय मंद होनेसे मिटी, और प्रतिसमय परमऔदारिक शरीरवर्गणाका ग्रहण होता है सो वह
नोकर्म-आहार है; इसलिए ऐसी-ऐसी वर्गणाका ग्रहण होता है जिससे क्षुधादिक व्याप्त न हों
और शरीर शिथिल न हो। सिद्धान्तमें इसीकी अपेक्षा केवलीको आहार कहा है।
है और शरीर क्षीण रहता है। तथा पवनादि साधनेवाले बहुत काल तक आहार नहीं लेते और
शरीर पुष्ट बना रहता है, व ऋद्धिधारी मुनि उपवासादि करते हैं तथापि शरीर पुष्ट बना रहता
है; फि र केवलीके तो सर्वोत्कृष्टपना है, उनके अन्नादिक बिना शरीर पुष्ट बना रहता है तो क्या
आश्चर्य हुआ? तथा केवली कैसे आहारको जायेंगे? कैसे याचना करेंगे?
थी उसका कैसे निर्वाह होगा? जीव अंतराय सर्वत्र प्रतिभासित हो वहाँ कैसे आहार ग्रहण
करेंगे? इत्यादि विरुद्धता भासित होती है। तथा वे कहते हैं
प्रकार विरुद्धता उत्पन्न होती है।
रहा और अतिशय नहीं हुआ तो इन्द्रादि द्वारा पूज्यपना कैसे शोभा देगा? तथा निहार कैसे
करते हैं, कहाँ करते हैं? कोई सम्भवित बातें नहीं हैं। तथा जिस प्रकार रागादियुक्त छद्मस्थके
क्रिया होती है, उसी प्रकार केवलीके क्रिया ठहराते हैं।
किस प्रकार बनता है? तथा केवलीके नमस्कारादि क्रिया ठहराते हैं, परन्तु अनुराग बिना
वन्दना सम्भव नहीं है। तथा गुणाधिकको वन्दना संभव है, परन्तु उनसे कोई गुणाधिक रहा
नहीं है सो कैसे बनती है?