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१५० ] [ मोक्षमार्गप्रकाशक
इसलिये जिस प्रकार बिना इच्छा विहायोगतिके उदयसे विहार सम्भव है, उसी प्रकार
बिना इच्छा केवल सातावेदनीयके ही उदयसे आहारका ग्रहण सम्भव नहीं है।
फि र वे कहते हैं — सिद्धान्तमें केवलीके क्षुधादिक ग्यारह परीषह कहे हैं, इसलिये उनके
क्षुधाका सद्भाव सम्भव है। तथा आहारादिक बिना उसकी उपशांतता कैसे होगी? इसलिये
उनके आहारादि मानते हैं।
समाधानः — कर्मप्रकृतियोंका उदय मन्द-तीव्र भेदसहित होता है। वहाँ अति मन्द उदय
होनेसे उस उदयजनित कार्यकी व्यक्तता भासित नहीं होती; इसलिये मुख्यरूपसे अभाव कहा जाता
है, तारतम्यमें सद्भाव कहा जाता है। जैसे — नवमें गुणस्थानमें वेदादिकका उदय मन्द है, वहाँ
मैथुनादि क्रिया व्यक्त नहीं है; इसलिये वहाँ ब्रह्मचर्य ही कहा है। तारतम्यमें मैथुनादिकका सद्भाव
कहा जाता है। उसी प्रकार केवलीके असाताका उदय अतिमन्द है; क्योंकि एक-एक कांडकमें
अनन्तवें भाग-अनुभाग रहते हैं; ऐसे बहुत अनुभागकांडकोंसे व गुणसंक्रमणादिसे सत्तामें
असातावेदनीयका अनुभाग अत्यन्त मन्द हुआ है, उसके उदयमें ऐसी क्षुधा व्यक्त नहीं होती जो
शरीरको क्षीण करे। और मोहके अभावसे क्षुधादिकजनित दुःख भी नहीं है; इसलिये क्षुधादिकका
अभाव कहा जाता है और तारतम्यमें उसका सद्भाव कहा जाता है।
तथा तूने कहा — आहारादिक बिना उसकी उपशांतता कैसे होगी? परन्तु आहारादिकसे
उपशांत होने योग्य क्षुधा लगे तो मन्द उदय कैसे रहा? देव, भोगभूमिया आदिकके किंचित्
मन्द उदय होने पर भी बहुत काल पश्चात् किंचित् आहार – ग्रहण होता है तो इनके अतिमंद
उदय हुआ है, इसलिये इनके आहारका अभाव सम्भव है।
फि र वह कहता है — देव, भोगभूमियोंका तो शरीर ही वैसा है कि जिन्हें भूख थोड़ी
और बहुत काल पश्चात् लगती है, उनका तो शरीर कर्मभूमिका औदारिक है; इसलिये इनका
शरीर आहार बिना देशेन्यूनकोटिपूर्व पर्यन्त उत्कृष्टरूपसे कैसे रहता है?
समाधानः — देवादिकका भी शरीर वैसा है; सो कर्मके ही निमित्तसे है। यहाँ केवलज्ञान
होने पर ऐसा ही कर्मका उदय हुआ, जिससे शरीर ऐसा हुआ कि उसको भूख प्रगट होती ही
नहीं। जिस प्रकार केवलज्ञान होनेसे पूर्व केश, नख बढ़ते थे, अब नहीं बढ़ते; छाया होती थी
अब नहीं होती; शरीरमें निगोद थी, उसका अभाव हुआ। बहुत प्रकारसे जैसे शरीरकी अवस्था
अन्यथा हुई; उसी प्रकार आहार बिना भी शरीर जैसेका तैसा रहे, ऐसी भी अवस्था हुई। प्रत्यक्ष
देखो, औरोंको जरा व्याप्त हो तब शरीर शिथिल हो जाता है, इनका आयुपर्यन्त शरीर शिथिल
नहीं होता; इसलिये अन्य मनुष्योंकी और इनके शरीरकी समानता सम्भव नहीं है।
तथा यदि तू कहेगा — देवादिकके आहार ही ऐसा है जिससे बहुत कालकी भूख मिट