Moksha-Marg Prakashak (Hindi).

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पाँचवाँ अधिकार ][ १४९
तथा यदि कहोगेदिगम्बरमें जिस प्रकार तीर्थंकरके पुत्री, चक्रवर्तीका मानभंग इत्यादि
कार्य कालदोषसे हुआ कहते हैं; उसी प्रकार यह भी हुए। परन्तु यह कार्य तो प्रमाणविरुद्ध
नहीं हैं, अन्यके होते थे सो महन्तोंके हुए; इसलिये कालदोष कहा है। गर्भहरणादि कार्य
प्रत्यक्ष-अनुमानादिसे विरुद्ध हैं, उनका होना कैसे सम्भव है?
तथा अन्य भी बहुत ही कथन प्रमाणविरुद्ध कहते हैं। जैसे कहते हैंसर्वार्थसिद्धिके
देव मनसे ही प्रश्न करते हैं, केवली मनसे ही उत्तर देते हें; परन्तु सामान्य जीवके मनकी
बात मनःपर्ययज्ञानीके बिना जान नहीं सकता, तो केवलीके मनकी सर्वार्थसिद्धिके देव किस
प्रकार जानेंगे? तथा केवलीके भावमनका तो अभाव है, द्रव्यमन जड़-आकारमात्र है, उत्तर
किसने दिया? इसलिये यह मिथ्या है।
इसप्रकार अनेक प्रमाणविरुद्ध कथन किये हैं, इसलिये उनके आगम कल्पित जानना।
श्वेताम्बरमत कथित देव-गुरु-धर्मका अन्यथा स्वरूप
तथा वे श्वेताम्बर मतवाले देव-गुरु-धर्मका स्वरूप अन्यथा निरूपित करते हैंः
देवका अन्यथा स्वरूप
वहाँ केवलीके क्षुधादिक दोष कहते हैं सो यह देवका स्वरूप अन्यथा है, कारण कि
क्षुधादिक दोष होनेसे आकुलता होगी तब अनन्तसुख किस प्रकार बनेगा? फि र यदि कहोगे
शरीरको क्षुधा लगती है, आत्मा तद्रूप नहीं होता; तो क्षुधादिकका उपाय आहारादिक किसलिये
ग्रहण किया कहते हो? क्षुधादिसे पीड़ित हो तभी आहार ग्रहण करेगा। फि र कहोगे
जिस प्रकार कर्मोदयसे विहार होता है उसी प्रकार आहारग्रहण होता है। सो विहार तो
विहायोगति प्रकृतिके उदयसे होता है और पीड़ाका उपाय नहीं है तथा वह बिना इच्छा भी
किसी जीवके होता देखा जाता है। तथा आहार है वह प्रकृतिउदयसे नहीं है, क्षुधासे पीड़ित
होने पर ही ग्रहण करता है। तथा आत्मा पवनादिको प्रेरित करे तभी निगलना होता है,
इसलिये विहारवत् आहार नहीं है।
यदि कहोगेसातावेदनीयके उदयसे आहारग्रहण होता है, सो भी बनता नहीं है।
यदि जीव क्षुधादिसे पीड़ित हो, पश्चात् आहारादिक ग्रहणसे सुख माने, उसके आहारादिक
साताके उदयसे कहे जाते हैं। आहारादिका ग्रहण सातावेदनीयके उदयसे स्वयमेव हो ऐसा
तो है नहीं; यदि ऐसा हो तो सातावेदनीयका मुख्य उदय देवोंके है, वे निरन्तर आहार क्यों
नहीं करते? तथा महामुनि उपवासादि करें उनके साताका भी उदय और निरन्तर भोजन
करनेवालोंको असाताका भी उदय सम्भव है।