Moksha-Marg Prakashak (Hindi).

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१५४ ] [ मोक्षमार्गप्रकाशक
अब यहाँ विचार करो किदोंनोंमें कल्पित वचन कौन हैं? प्रथम तो कल्पित रचना
कषायी हो वह करता है; तथा कषायी हो वही नीचपदमें उच्चपद प्रगट करता है। यहाँ
दिगम्बर में वस्त्रादि रखनेसे धर्म होता ही नहीं है
ऐसा तो नहीं कहा, परन्तु वहाँ श्रावकधर्म
कहा है; श्वेताम्बरमें मुनिधर्म कहा है। इसलिए यहाँ जिसने नीची क्रिया होने पर उच्चत्व
किया वही कषायी है। इस कल्पित कथनसे अपनेको वस्त्रादि रखने पर भी लोग मुनि मानने
लगें; इसलिये मानकषायका पोषण किया और दूसरोंको सुगमक्रियामें उच्चपद होना दिखाया,
इसलिये बहुत लोग लग गये। जो कल्पित मत हुए हैं वे इसी प्रकार हुए हैं। इसलिए
कषायी होकर वस्त्रादि होने पर मुनिपना कहा है सो पूर्वोक्त युक्तिमें विरुद्ध भासित होता
है; इसलिये यह कल्पित वचन हैं, ऐसा जानना।
फि र कहोगेदिगम्बरमें भी शास्त्र, पींछी आदि उपकरण मुनिके कहे हैं; उसी प्रकार
हमारे चौदह उपकरण कहे हैं?
समाधानःजिससे उपकार हो उसका नाम उपकरण है। सो यहाँ शीतादिककी वेदना
दूर करनेसे उपकरण ठहरायें तो सर्व परिग्रह-सामग्री उपकरण नाम प्राप्त करे, परन्तु धर्म में
उनका प्रयोजन? वे तो पाप के कारण हैं; धर्ममें तो जो धर्मके उपकारी हों उनका नाम
उपकरण है। वहाँ शास्त्र
ज्ञानका कारण, पींछीदयाका कारण, कमण्डलशौचका कारण
है, सो यह तो धर्मके उपकारी हुए, वस्त्रादिक किस प्रकार धर्मके उपकारी होंगे? वे तो
शरीरसुखके अर्थ ही धारण किए जाते हैं।
और सुनो, यदि शास्त्र रखकर महंतता दिखायें, पीछीसे बुहारी दें, कमण्डलसे जलादिक
पियें व मैल उतारें, तो शास्त्रादिक भी परिग्रह ही हैं; परन्तु मुनि ऐसे कार्य नहीं करते।
इसलिये धर्मके साधनको परिग्रह संज्ञा नहीं है; भोगके साधनको परिग्रह संज्ञा होती है ऐसा
जानना।
फि र कहोगेकमण्डलसे तो शरीरका ही मल दूर करते हैं; परन्तु मुनि मल दूर करनेकी
इच्छासे कमण्डल नहीं रखते हैं। शास्त्र पढ़ना आदि कार्य करते हैं, वहाँ मललिप्त हों तो
उनकी अविनय होगी, लोकनिंद्य होंगे; इसलिए इस धर्मके अर्थ कमण्डल रखते हैं। इसप्रकार
पींछी आदि उपकरण सम्भवित हैं, वस्त्रादिको उपकरण संज्ञा सम्भव नहीं है।
काम, अरति आदि मोहके उदयसे विकार बाह्य प्रगट हों, तथा शीतादि सहे नहीं
जायें, इसलिए विकार ढँकनेको व शीतादि मिटानेको वस्त्रादि रखते हैं और मानके उदयसे
अपनी महंतता भी चाहते हैं, इसलिये उन्हें कल्पित युक्ति द्वारा उपकरण ठहराया है।