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पाँचवाँ अधिकार ][ १५५
तथा घर-घर याचना करके आहार लाना ठहराते हैं। सो पहले तो यह पूछते हैं
कि — याचना धर्मका अङ्ग है या पापका अङ्ग है? यदि धर्मका अङ्ग है तो माँगनेवाले सर्व
धर्मात्मा हुए; और पापका अङ्ग है तो मुनिके किस प्रकार सम्भव है?
फि र यदि तू कहेगा — लोभसे कुछ धनादिककी याचना करें तो पाप हो; यह तो धर्म
साधनके अर्थ शरीरकी स्थिरता करना चाहते हैं, इसलिये आहारादिककी याचना करते हैं?
समाधानः — आहारादिसे धर्म नहीं होता, शरीरका सुख होता है; इसलिये शरीरसुखके
अर्थ अतिलोभ होने पर याचना करते हैं। यदि अतिलोभ न होता तो आप किसलिये माँगता?
वे ही देते तो देते, न देते तो न देते। तथा अतिलोभ हुआ वही पाप हुआ, तब मुनिधर्म
नष्ट हुआ; दूसरा धर्म क्या साधेगा?
अब वह कहता है — मनमें तो आहारकी इच्छा हो और याचना न करे तो माया-
कषाय हुई; और याचना करने में हीनता आती है सो गर्वके कारण याचना न करे तो
मानकषाय हुई। आहार लेना था सो माँग लिया, इसमें अतिलोभ क्या हुआ और इससे
मुनिधर्म किस प्रकार नष्ट हुआ? सो कहो।
उससे कहते हैं — जैसे किसी व्यापारीको कमानेकी इच्छा मन्द है सो दुकान पर तो
बैठे और मनमें व्यापार करनेकी इच्छा भी है; परन्तु किसीसे वस्तु लेन-देनरूप व्यापार के
अर्थ प्रार्थना नहीं करता है, स्वयमेव कोई आये तो अपनी विधि मिलने पर व्यापार करता
है तो उसके लोभकी मन्दता है, माया व मान नहीं है। माया, मानकषाय तो तब होगी
जब छल करनेके अर्थ व अपनी महंतताके अर्थ ऐसा स्वांग करे। परन्तु अच्छे व्यापारीके
ऐसा प्रयोजन नहीं है, इसलिये उनके माया-मान नहीं कहते। उसी प्रकार मुनियोंके
आहारादिककी इच्छा मन्द है। वे आहार लेने आते हैं, मनमें आहार लेनेकी इच्छा भी है,
परन्तु आहारके अर्थ प्रार्थना नहीं करते; स्वयमेव कोई दे तो अपनी विधि मिलने पर आहार
लेते हैं, वहाँ उनके लोभकी मन्दता है, माया व मान नहीं है। माया – मान तो तब होगा
जब छल करनेके अर्थ व महंतताके अर्थ ऐसा स्वांग करें, परन्तु मुनियोंके ऐसे प्रयोजन हैं
नहीं, इसलिये उनके माया – मान नहीं है। यदि इसी प्रकार माया – मान हो, तो जो मन ही
द्वारा पाप करते हैं, वचन – काय द्वारा नहीं करते; उन सबके माया ठहरेगी और जो उच्चपदवीके
धारक नीचवृत्ति अंगीकार नहीं करते उन सबके मान ठहरेगा — ऐसा अनर्थ होगा।
तथा तूने कहा — ‘‘आहार मांगनेमें अतिलोभ क्या हुआ?’’ सो अति कषाय हो तब
लोकनिंद्य कार्य अंगीकार करके भी मनोरथ पूर्ण करना चाहता है; और माँगना लोकनिंद्य है,