Moksha-Marg Prakashak (Hindi).

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पाँचवाँ अधिकार ][ १५९
त्याग करते हुए कुछ विचार नहीं करते किक्या त्याग करता हूँ? बादमें पालन भी नहीं
करते और उन्हें सब साधु मानते हैं।
तथा यह कहता हैबादमें धर्मबुद्धि हो जायेगी तब तो उसका भला होगा? परन्तु
पहले ही दीक्षा देनेवालेने प्रतिज्ञा भंग होती जानकर भी प्रतिज्ञा करायी, तथा इसने प्रतिज्ञा
अंगीकार करके भंग की, सो यह पाप किसे लगा? बादमें धर्मात्मा होनेका निश्चय कैसा?
तथा जो साधुका धर्म अंगीकार करके यथार्थ पालन न करे उसे साधु मानें या न मानें?
यदि मानें तो जो साधु मुनिनाम धारण करते हैं और भ्रष्ट हैं उन सबको साधु मानो। न
मानें तो इनके साधुपना नहीं रहा। तुम जैसे आचरणसे साधु मानते हो उसका भी पालन
किसी विरलेके पाया जाता है; सबको साधु किसलिये मानते हो?
यहाँ कोई कहेहम तो जिसके यथार्थ आचरण देखेंगे उसे साधु मानेंगे, और को
नहीं मानेंगे। उससे पूछते हैंएक संघमें बहुत भेषी हैं; वहाँ जिसके यथार्थ आचरण मानते
हो, वह औरोंको साधु मानता है या नहीं मानता? यदि मानता है तो तुमसे भी अश्रद्धानी
हुआ, उसे पूज्य कैसे मानते हो? और नहीं मानता तो उससे साधुका व्यवहार किसलिये
वर्तता है? तथा आप तो उन्हें साधु न मानें और अपने संघमें रखकर औरोंसे साधु मानवाकर
औरोंको अश्रद्धानी करता है ऐसा कपट किसलिये करता है? तथा तुम जिसको साधु नहीं
मानोगे तब अन्य जीवोंको भी ऐसा ही उपदेश करोगे कि
‘इनको साधु मत मानो,’ इससे
तो धर्मपद्धतिमें विरोध होता है। और जिसको तुम साधु मानते हो उससे भी तुम्हारा विरोध
हुआ, क्योंकि वह उसे साधु मानता है। तथा तुम जिसके यथार्थ आचरण मानते हो, वहाँ
भी विचारकर देखो; वह भी यथार्थ मुनिधर्मका पालन नहीं करता है।
कोई कहेअन्य भेषधारियोंसे तो बहुत अच्छे हैं, इसलिये हम मानते हैं; परन्तु
अन्यमतोंमें तो नानाप्रकारके भेष सम्भव हैं, क्योंकि वहाँ रागभावका निषेध नहीं है। इस
जैनमतमें तो जैसा कहा है, वैसा ही होने पर साधुसंज्ञा होती है।
यहाँ कोई कहेशील-संयमादि पालते हैं, तपश्चरणादि करते हैं; सो जितना करें उतना
ही भला है?
समाधानःयह सत्य है, धर्म थोड़ा भी पाला हुआ भला ही है; परन्तु प्रतिज्ञा तो
बड़े धर्मकी करें और पालें थोड़ा, तो वहाँ प्रतिज्ञाभंगसे महापाप होता है। जैसे कोई उपवास
की प्रतिज्ञा करके एक बार भोजन करे तो उसके बहुत भोजनका संयम होने पर भी प्रतिज्ञा
भंगसे पापी कहते हैं, उसी प्रकार मुनिधर्मकी प्रतिज्ञा करके कोई किंचित् धर्म न पाले, तो