एकबार भोजन करे तो धर्मात्मा ही है; उसी प्रकार अपना श्रावकपद धारण करके थोड़ा
भी धर्म साधन करे तो धर्मात्मा ही है। यहाँ ऊँचा नाम रखकर नीची क्रिया करनेमें पापीपना
सम्भव है। यथायोग्य नाम धारण करके धर्मक्रिया करनेसे तो पापीपना होता नहीं है; जितना
धर्मसाधन करे उतना ही भला है।
हैं, उसी प्रकार इस कालमें साधुका सद्भाव है, और गम्यक्षेत्रमें साधु दिखाई नहीं देते, तो
औरोंको तो साधु माना नहीं जाता; साधुका लक्षण मिलने पर ही साधु माने जाते हैं। तथा
इनका प्रचार भी थोड़े ही क्षेत्रमें दिखाई देता है, वहाँसे दूरके क्षेत्रमें साधुका सद्भाव कैसे
मानें? यदि लक्षण मिलने पर मानें तो यहाँ भी इसी प्रकार मानो। और बिना लक्षण मिले
ही मानें तो वहाँ अन्य कुलिंगी हैं इन्हीको साधु मानो। इस प्रकार विपरीतता होती है,
इसलिये बनता नहीं है।
इनके साधुपना बनता नहीं है; और साधुपने बिना साधु मानकर गुरु माननेसे मिथ्यादर्शन होता
है; क्योंकि भले साधुको गुरु माननेसे ही सम्यग्दर्शन होता है।
और वह त्रसघातादिक जिसमें हो ऐसा कार्य करता है; सो देशव्रत गुणस्थानमें तो ग्यारह
अविरति कहे हैं, वहाँ त्रसघात किस प्रकार सम्भव है? तथा ग्यारह प्रतिमाभेद श्रावकके
हैं, उनमें दसवीं-ग्यारहवीं प्रतिमाधारक श्रावक तो कोई होता ही नहीं और साधु होता है।