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१६२ ] [ मोक्षमार्गप्रकाशक
मूर्तिपूजा निषेधका निराकरण
तथा इस अहिंसाका एकान्त पकड़कर प्रतिमा, चैत्यालय, पूजनादि क्रियाका उत्थापन
करते हैं; सो उन्हींके शास्त्रोंमें प्रतिमा आदिका निरूपण है, उसे आग्रहसे लोप करते हैं।
भगवती सूत्रमें ऋद्धिधारी मुनिका निरूपण है वहाँ मेरुगिरि आदिमें जाकर ‘‘तत्थ चेययाइं वंदई’’
ऐसा पाठ है। इसका अर्थ यह है कि — वहाँ चैत्योंकी वंदना करते हैं। और चैत्य नाम
प्रतिमाका प्रसिद्ध है। तथा वे हठसे कहते हैं — चैत्य शब्दके ज्ञानादिक अनेक अर्थ होते
हैं, इसलिये अन्य अर्थ है, प्रतिमाका अर्थ नहीं है। इससे पूछते हैं — मेरुगिरि नन्दीश्वर द्वीपमें
जा-जाकर वहाँ चैत्य वन्दना की, सो वहाँ ज्ञानादिककी वन्दना करनेका अर्थ कैसे सम्भव है?
ज्ञानादिककी वन्दना तो सर्वत्र सम्भव है। जो वन्दनायोग्य चैत्य वहाँ सम्भव हो और सर्वत्र
सम्भव न हो वहाँ उसे वन्दना करनेका विशेष सम्भव है और ऐसा सम्भवित अर्थ प्रतिमा
ही है; और चैत्य शब्दका मुख्य अर्थ प्रतिमा ही है, सो प्रसिद्ध है। इसी अर्थ द्वारा चैत्यालय
नाम सम्भव है; उसे हठ करके किसलिये लुप्त करें?
तथा नन्दीश्वर द्वीपादिकमें जाकर देवादिक पूजनादि क्रिया करते हैं, उसका व्याख्यान
उनके जहाँ-तहाँ पाया जाता है। तथा लोकमें जहाँ-तहाँ अकृत्रिम प्रतिमाका निरूपण है।
सो वह रचना अनादि है, वह रचना भोग – कुतूहलादिके अर्थ तो है नहीं। और इन्द्रादिकोंके
स्थानोंमें निष्प्रयोजन रचना सम्भव नहीं है। इसलिये इन्द्रादिक उसे देखकर क्या करते हैं?
या तो अपने मन्दिरोंमें निष्प्रयोजन रचना देखकर उससे उदासीन होते होंगे, वहाँ दुःखी होते
होंगे, परन्तु यह सम्भव नहीं है। या अच्छी रचना देखकर विषयोंका पोषण करते होंगे,
परन्तु अरहन्तकी मूर्ति द्वारा सम्यग्दृष्टि अपना विषय पोषण करें यह भी सम्भव नहीं है।
इसलिये वहाँ उनकी भक्ति आदि ही करते हैं, यही सम्भव है।
उनके सूर्याभदेवका व्याख्यान है; वहाँ प्रतिमाजीको पूजनेका विशेष वर्णन किया है।
उसे गोपनेके अर्थ कहते हैं — देवोंका ऐसा ही कर्तव्य है। सो सच है, परन्तु कर्तव्यका तो
फल होता है; वहाँ धर्म होता है या पाप होता है? यदि धर्म होता है तो अन्यत्र पाप होता
था यहाँ धर्म हुआ; इसे औरोंके सदृश कैसे कहें? यह तो योग्य कार्य हुआ। और पाप होता
है तो वहाँ ‘‘णमोत्थुणं’’ का पाठ पढ़ा; सो पापके ठिकाने ऐसा पाठ किसलिये पढ़ा?
तथा एक विचार यहाँ यह आया कि — ‘‘णमोत्थुणं’’ के पाठमें तो अरहन्तकी भक्ति
है; सो प्रतिमाजीके आगे जाकर यह पाठ पढ़ा, इसलिये प्रतिमाजीके आगे जो अरहंतभक्तिकी
क्रिया है वह करना युक्त हुई।