परिणाम न लगें वह पूजनादि द्वारा वहाँ अपना उपयोग लगाता है। वहाँ नानाप्रकारके आलम्बन
द्वारा उपयोग लग जाता है। यदि वहाँ उपयोगको न लगाये तो पापकार्योंमें उपयोग भटकेगा
और उससे बुरा होगा; इसलिये वहाँ प्रवृत्ति करना युक्त है।
नहीं मिलता; क्योंकि ऐसा माननेसे तो इन्द्र जन्मकल्याणकमें बहुत जलसे अभिषेक करता है,
समवशरणमें देव पुष्पवृष्टि करना, चँवर ढालना इत्यादि कार्य करते हैं सो वे महापापी हुए।
धर्म है तो किसलिये निषेध करते हो?
तथा साधर्मियोंको भोजन कराते हैं, साधुका मरण होने पर उसका संस्कार करते हैं, साधु
होने पर उत्सव करते हैं, इत्यादि प्रवृत्ति अब भी देखी जाती है; सो यहाँ भी हिंसा होती
है; परन्तु यह कार्य तो धर्मके ही अर्थ हैं, अन्य कोई प्रयोजन नहीं है। यदि यहाँ महापाप
होता है, तो पूर्वकालमें ऐसे कार्य किये उनका निषेध करो। और अब भी गृहस्थ ऐसा
कार्य करते हैं, उनका त्याग करो। तथा यदि धर्म होता है तो धर्मके अर्थ हिंसामें महापाप
बतलाकर किसलिये भ्रममें डालते हो?
धर्म उत्पन्न हो तो वह कार्य करना योग्य है। यदि थोड़े धनके लोभसे कार्य बिगाड़े तो
मूर्ख है; उसी प्रकार थोड़ी हिंसाके भयसे बड़ा धर्म छोड़े तो पापी होता है। तथा कोई
बहुत धन ठगाये और थोड़ा धन उत्पन्न करे, व उत्पन्न नहीं करे तो वह मूर्ख है; उसी
प्रकार बहुत हिंसादि द्वारा बहुत पाप उत्पन्न करे और भक्ति आदि धर्ममें थोड़ा प्रवर्ते व