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१६६ ] [ मोक्षमार्गप्रकाशक
नहीं प्रवर्ते, तो वह पापी ही होता है। तथा जिस प्रकार बिना ठगाये ही धनका लाभ
होने पर ठगाये तो मूर्ख है; उसी प्रकार निरवद्य धर्मरूप उपयोग होने पर सावद्यधर्ममें उपयोग
लगाना योग्य नहीं है।
इस प्रकार अपने परिणामोंकी अवस्था देखकर भला हो वह करना; परन्तु एकान्त-
पक्ष कार्यकारी नहीं है। तथा अहिंसा ही केवल धर्मका अङ्ग नहीं है; रागादिकोंका घटना
धर्मका मुख्य अङ्ग है। इसलिये जिस प्रकार परिणामोंमें रागादिक घटें वह कार्य करना।
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तथा गृहस्थोंको अणुव्रतादिकके साधन हुए बिना ही सामायिक, प्रतिक्रमण, प्रोषध आदि
क्रियाओंका मुख्य आचरण कराते हैं। परन्तु सामायिक तो राग-द्वेषरहित साम्यभाव होने पर
होती है, पाठ मात्र पढ़नेसे व उठना-बैठना करनेसे ही तो होती नहीं है।
फि र कहोगे — अन्य कार्य करता उससे तो भला है? सो सत्य; परन्तु सामायिक पाठमें
प्रतिज्ञा तो ऐसी करता है कि — मन-वचन-काय द्वारा सावद्यको न करूँगा, न कराऊँगा; परन्तु
मनमें तो विकल्प होता ही रहता है, और वचन-कायमें भी कदाचित् अन्यथा प्रवृत्ति होती
है वहाँ प्रतिज्ञाभंग होती है। सो प्रतिज्ञाभंग करनेसे तो न करना भला है; क्योंकि प्रतिज्ञाभंग
महापाप है।
फि र हम पूछते हैं — कोई प्रतिज्ञा भी नहीं करता और भाषापाठ पढ़ता है, उसका
अर्थ जानकर उसमें उपयोग रखता है। कोई प्रतिज्ञा करे उसे तो भलीभाँति पालता नहीं
है और प्राकृतादिकके पाठ पढ़ता है; उसके अर्थका अपनेको ज्ञान नहीं है, बिना अर्थ जाने
वहाँ उपयोग नहीं रहता तब उपयोग अन्यत्र भटकता है। ऐसे इन दोनोंमें विशेष धर्मात्मा
कौन? यदि पहलेको कहोगे, तो ऐसा ही उपदेश क्यों नहीं देते? तथा दूसरेको कहोगे तो
प्रतिज्ञाभंगका पाप हुआ व परिणामोंके अनुसार धर्मात्मापना नहीं ठहरा; परन्तु पाठादि करनेके
अनुसार ठहरा।
इसलिये अपना उपयोग जिस प्रकार निर्मल हो वह कार्य करना। सध सके वह प्रतिज्ञा
करना। जिसका अर्थ जाने वह पाठ पढ़ना। पद्धति द्वारा नाम रखानेमें लाभ नहीं है।
तथा प्रतिक्रमण नाम पूर्वदोष निराकरण करनेका है; परन्तु ‘‘मिच्छामि दुक्कड़ं’’ इतना
कहनेसे ही तो दुष्कृत मिथ्या नहीं होते; किये हुए दुष्कृत मिथ्या होने योग्य परिणाम होने
पर ही दुष्कृत मिथ्या होते हैं; इसलिये पाठ ही कार्यकारी नहीं है।