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छठवाँ अधिकार ][ १७५
यहाँ पूछे कि — मिथ्यात्वादिभाव तो अतत्त्व-श्रद्धानादि होने पर होते हैं और पापबन्ध
खोटे (बुरे) कार्य करनेसे होता है; सो उनके माननेसे मिथ्यात्वादिक व पापबन्ध किस प्रकार
होंगे?
उत्तरः — प्रथम तो परद्रव्योंको इष्ट-अनिष्ट मानना ही मिथ्या है, क्योंकि कोई द्रव्य
किसीका मित्र-शत्रु है नहीं। तथा जो इष्ट-अनिष्ट पदार्थ पाये जाते हैं उसका कारण पुण्य-
पाप है; इसलिये जैसे पुण्यबन्ध हो, पापबन्ध न हो; वह करना। तथा यदि कर्म-उदयका
भी निश्चय न हो और इष्ट-अनिष्टके बाह्य कारणोंके संयोग-वियोगका उपाय करे; परन्तु कुदेवको
माननेसे इष्ट-अनिष्टबुद्धि दूर नहीं होती, केवल वृद्धिको प्राप्त होती है; तथा उससे पुण्यबंध
भी नहीं होता, पापबंध होता है। तथा कुदेव किसीको धनादिक देते या छुड़ा लेते नहीं
देखे जाते, इसलिये ये बाह्य कारण भी नहीं हैं। इनकी मान्यता किस अर्थ की जाती है?
जब अत्यन्त भ्रमबुद्धि हो, जीवादि तत्त्वोंके श्रद्धान-ज्ञानका अंश भी न हो, और राग-द्वेषकी
अति तीव्रता हो; तब जो कारण नहीं हैं उन्हें भी इष्ट-अनिष्टका कारण मानते हैं, तब कुदेवोंकी
मान्यता होती है।
ऐसे तीव्र मिथ्यात्वादि भाव होने पर मोक्षमार्ग अति दुर्लभ हो जाता है।
कुगुरुका निरूपण और उसके श्रद्धानादिकका निषेध
आगे कुगुरुके श्रद्धानादिकका निषेध करते हैंः —
जो जीव विषय-कषायादि अधर्मरूप तो परिणमित होते हैं, और मानादिकसे अपनेको
धर्मात्मा मानते हैं, धर्मात्माके योग्य नमस्कारादि क्रिया कराते हैं, अथवा किंचित् धर्मका कोई
अंग धारण करके बड़े धर्मात्मा कहलाते हैं, बड़े धर्मात्मा योग्य क्रिया कराते हैं — इस प्रकार
धर्मका आश्रय करके बड़ा मनवाते हैं, वे सब कुगुरु जानना; क्योंकि धर्मपद्धतिमें तो विषय-
कषायादि छूटने पर जैसे धर्मको धारण करे वैसा ही अपना पद मानना योग्य है।
कुलादि अपेक्षा गुरुपनेका निषेध
वहाँ कितने ही तो कुल द्वारा अपनेको गुरु मानते हैं। उनमें कुछ ब्राह्मणादिक तो
कहते हैं — हमारा कुल ही ऊँचा है, इसलिये हम सबके गुरु हैं। परन्तु कुलकी उच्चता तो
धर्म साधनेसे है। यदि उच्च कुलमें होकर हीन आचरण करे तो उसे उच्च कैसे मानें? यदि
कुलमें उत्पन्न होनेसे ही उच्चपना रहे, तो मांसभक्षणादि करने पर भी उसे उच्च ही मानो;
सो वह बनता नहीं है। भारत ग्रन्थमें भी अनेक ब्राह्मण कहे हैं। वहाँ ‘‘जो ब्राह्मण होकर