तो ऐसी हीन संज्ञा किसलिये दी है?
एक कुल है, भिन्न कुल कैसे रहा? तथा उच्चकुलकी स्त्रीके नीचकुलके पुरुषसे व नीचकुलकी
स्त्रीके उच्चकुलके पुरुषसे संगम होनेसे सन्तति होती देखी जाती है; वहाँ कुलका प्रमाण किस
प्रकार रहा? यदि कदाचित् कहोगे
है; इसलिये धर्मपद्धतिमें कुल-अपेक्षा महन्तपना सम्भव नहीं है। धर्मसाधनसे ही महन्तपना होता
है। ब्राह्मणादि कुलोंमें महन्तपना है सो धर्मप्रवृत्तिसे है; धर्मप्रवृत्तिको छोड़कर हिंसादि पापमें
प्रवर्तनेसे महन्तपना किस प्रकार रहेगा?
नहीं; यदि उनकी सन्ततिमें उत्तमकार्य करनेसे उत्तम मानते हो तो उत्तमपुरुषकी सन्ततिमें जो
उत्तमकार्य न करे, उसे उत्तम किसलिये मानते हो? शास्त्रोंमें व लोकमें यह प्रसिद्ध है कि
पिता शुभकार्य करके उच्चपद प्राप्त करता है, पुत्र अशुभकार्य करके नीचपदको प्राप्त करता
है; पिता अशुभ कार्य करके नीचपदको प्राप्त करता है, पुत्र शुभकार्य करके उच्चपदको प्राप्त
करता है। इसलिये बड़ोंकी अपेक्षा महन्त मानना योग्य नहीं है।
तथा कितने ही पट्ट द्वारा गुरुपना मानते हैं। पूर्वकालमें कोई महन्त पुरुष हुआ हो,
करेगा वह भी धर्मात्मा होगा, सुगतिको प्राप्त होगा; परन्तु यह सम्भव नहीं है। और पापी
है तो गादीका अधिकार कहाँ रहा? जो गुरुपद योग्य कार्य करे वही गुरु है।
किस प्रकार रहा? अन्य गृहस्थोंके समान यह भी हुए। इतना विशेष हुआ कि यह भ्रष्ट
होकर गृहस्थ हुए; इन्हें मूल गृहस्थधर्मी गुरु कैसे मानें?