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१८८ ] [ मोक्षमार्गप्रकाशक
कोई कहे — जिस प्रकार राजादिकको करता है; उसी प्रकार इनको भी करता है?
उत्तरः — राजादिक धर्मपद्धतिमें नहीं हैं, गुरुका सेवन तो धर्मपद्धतिमें है। राजादिकका
सेवन तो लोभादिकसे होता है, वहाँ चारित्रमोहका ही उदय सम्भव है; परन्तु गुरुके स्थान
पर कुगुरुका सेवन किया, वहाँ तत्त्वश्रद्धानके कारण तो गुरु थे, उनसे यह प्रतिकूल हुआ।
सो लज्जादिकसे जिसने कारणमें विपरीतता उत्पन्न की उसके कार्यभूत तत्त्वश्रद्धानमें दृढ़ता कैसे
सम्भव है? इसलिये वहाँ दर्शनमोहका उदय सम्भव है।
इस प्रकार कुगुरुओंका निरूपण किया।
कुधर्मका निरूपण और उसके श्रद्धानादिकका निषेध
अब कुधर्मका निरूपण करते हैंः —
जहाँ हिंसादि पाप उत्पन्न हों व विषय-कषायोंकी वृद्धि हो वहाँ धर्म माने; सो कुधर्म
जानना। यज्ञादि क्रियाओंमें महाहिंसादिक उत्पन्न करे, बड़े जीवोंका घात करे और इन्द्रियोंके
विषय पोषण करे, उन जीवोंमें दुष्टबुद्धि करके रौद्रध्यानी हो, तीव्र लोभसे औरोंका बुरा करके
अपना कोई प्रयोजन साधना चाहे; और ऐसे कार्य करके वहाँ धर्म माने; सो कुधर्म है।
तथा तीर्थोंमें व अन्यत्र स्नानादि कार्य करे, वहाँ बड़े-छोटे बहुतसे जीवोंकी हिंसा होती
है, शरीरको चैन मिलता है; इसलिये विषय-पोषण होता है और कामादिक बढ़ते हैं;
कुतूहलादिसे वहाँ कषायभाव बढ़ाता है और धर्म मानता है; सो कुधर्म है।
तथा संक्रान्ति, ग्रहण, व्यतिपातादिकमें दान देता है व बुरे ग्रहादिके अर्थ दान देता
है; पात्र जानकर लोभी पुरुषोंको दान देता है; दान देनेमें सुवर्ण, हस्ती, घोड़ा, तिल आदि
वस्तुओंको देता है। परन्तु संक्रान्ति आदि पर्व धर्मरूप नहीं हैं, ज्योतिषीके संचारादिक द्वारा
संक्रान्ति आदि होते हैं। तथा दुष्ट ग्रहादिकके अर्थ दिया — वहाँ भय, लोभादिककी अधिकता
हुई, इसलिये वहाँ दान देनेमें धर्म नहीं है। तथा लोभी पुरुष देने योग्य पात्र नहीं हैं, क्योंकि
लोभी नाना असत्य युक्तियाँ करके ठगते हैं, किंचित् भला नहीं करते। भला तो तब होता
है जब इसके दानकी सहायतासे वह धर्म-साधन करे; परन्तु वह तो उल्टा पापरूप प्रवर्तता
है। पापके सहायकका भला कैसे होगा?
यही ‘‘रयणसार’’ शास्त्रमें कहा हैः —
सप्पुरिसाणं दाणं कप्पतरूणं फलाणं सोहं वा।
लोहीणं दाणं जइ विमाणसोहा सवस्स जाणेह।।२६।।