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छठवाँ अधिकार ][ १८७
किये सुने जाते हैं; मुनि होकर तो किसीने हिंसादिक कार्य किये नहीं हैं, परिग्रह रखा नहीं
है, इसलिये ऐसी युक्ति कार्यकारी नहीं है।
देखो, आदिनाथजीके साथ चार हजार राजा दीक्षा लेकर पुनः भ्रष्ट हुए, तब देव
उनसे कहने लगे — ‘जिनलिंगी होकर अन्यथा प्रवर्तोगे तो हम दंड देंगे। जिनलिंग छोड़कर
जो तुम्हारी इच्छा हो सो तुम जानो’। इसलिये जिनलिंगी कहलाकर अन्यथा प्रवर्ते, वे तो
दंडयोग्य हैं; वंदनादि-योग्य कैसे होंगे?
अब अधिक क्या कहें! जिनमतमें कुवेष धारण करते हैं वे महापाप करते हैं; अन्य
जीव जो उनकी सुश्रुषा आदि करते हैं वे भी पापी होते हैं। पद्मपुराणमें यह कथा है
कि — श्रेष्ठी धर्मात्माने चारण मुनियोंको भ्रमसे भ्रष्ट जानकर आहार नहीं दिया; तब जो प्रत्यक्ष
भ्रष्ट हैं उन्हें दानादिक देना कैसे सम्भव है?
यहाँ कोई कहे — हमारे अन्तरंगमें श्रद्धान तो सत्य है, परन्तु बाह्य लज्जादिसे शिष्टाचार
करते हैं; सो फल तो अन्तरंगका होगा?
उत्तरः — षट्पाहुड़में लज्जादिसे वन्दनादिकका निषेध बतलाया था, वह पहले ही कहा
था। कोई जबरदस्ती मस्तक झुकाकर हाथ जुड़वाये, तब तो यह सम्भव है कि हमारा अन्तरंग
नहीं था; परन्तु आप ही मानादिकसे नमस्कारादि करे, वहाँ अन्तरंग कैसे न कहें? जैसे —
कोई अन्तरंगमें तो माँसको बुरा जाने; परन्तु राजादिकको भला मनवानेको माँस-भक्षण करे
तो उसे व्रती कैसे मानें? उसी प्रकार अन्तरंगमें तो कुगुरु-सेवनको बुरा जाने; परन्तु उनको
व लोगोंको भला मनवानेके लिये सेवन करे तो श्रद्धानी कैसे कहें? इसलिये बाह्यत्याग करने
पर ही अन्तरंगत्याग सम्भव है। इसलिये जो श्रद्धानी जीव हैं, उन्हें किसी प्रकारसे भी
कुगुरुओंकी सुश्रुषा आदि करना योग्य नहीं है।
इस प्रकार कुगुरुसेवनका निषेध किया।
यहाँ कोई कहे — किसी तत्त्वश्रद्धानीको कुगुरुसेवनसे मिथ्यात्व कैसे हुआ?
उत्तरः — जिस प्रकार शीलवती स्त्री परपुरुषके साथ भर्तारकी भाँति रमणक्रिया सर्वथा
नहीं करती; उसी प्रकार तत्त्वश्रद्धानी पुरुष कुगुरुके साथ सुगुरुकी भाँति नमस्कारादि क्रिया
सर्वथा नहीं करता। क्योंकि यह तो जीवादि तत्त्वोंका श्रद्धानी हुआ है — वहाँ रागादिकका
निषेध करनेवाला श्रद्धान करता है, वीतरागभावको श्रेष्ठ मानता है — इसलिये जिसके वीतरागता
पायी जाये, उन्हीं गुरुको उत्तम जानकर नमस्कारादि करता है; जिनके रागादिक पाये जायें
उन्हें निषिद्ध जानकर कदापि नमस्कारादि नहीं करता।