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१८६ ] [ मोक्षमार्गप्रकाशक
यहाँ कोई कहे — निर्ग्रन्थ भी तो आहार लेते हैं?
उत्तरः — लोभी होकर, दातारकी सुश्रुषा करके, दीनतासे आहार नहीं लेते; इसलिये
महंतता नहीं घटती। जो लोभी हो वही हीनता प्राप्त करता है। इसी प्रकार अन्य जीव
जानना। इसलिये निर्ग्रन्थ ही सर्वप्रकार महंततायुक्त हैं; निर्ग्रन्थके सिवा अन्य जीव सर्वप्रकार
गुणवान नहीं हैं; इसलिये गुणोंकी अपेक्षा महंतता और दोषोंकी अपेक्षा हीनता भासित होती
है, तब निःशंक स्तुति नहीं की जा सकती।
तथा निर्ग्रन्थके सिवा अन्य जीव जैसा धर्म-साधन करते हैं, वैसा व उससे अधिक
धर्म-साधन गृहस्थ भी कर सकते हैं; वहाँ गुरुसंज्ञा किसको होगी? इसलिये जो बाह्याभ्यान्तर
परिग्रहरहित निर्ग्रन्थ मुनि हैं उन्हींको गुरु जानना।
यहाँ कोई कहे — ऐसे गुरु तो वर्तमानमें यहाँ नहीं हैं, इसलिये जिस प्रकार अरहन्तकी
स्थापना प्रतिमा है; उसी प्रकार गुरुओंकी स्थापना यह वेषधारी हैं?
उत्तरः — जिस प्रकार राजाकी स्थापना चित्रादि द्वारा करे सो वह राजाका प्रतिपक्षी
नहीं है, और कोई सामान्य मनुष्य अपनेको राजा मनाये तो राजाका प्रतिपक्षी होता है; उसी
प्रकार अरहन्तादिककी पाषाणादिमें स्थापना बनाये तो उनका प्रतिपक्षी नहीं है, और कोई
सामान्य मनुष्य अपने को मुनि मनाये तो वह मुनियोंका प्रतिपक्षी हुआ। इस प्रकार भी स्थापना
होती हो तो अपनेको अरहन्त भी मनाओ! और यदि उनकी स्थापना हो तो बाह्यमें तो
वैसा ही होना चाहिये; परन्तु वे निर्ग्रन्थ, यह बहुत परिग्रहके धारी — यह कैसे बनता है?
तथा कोई कहे — अब श्रावक भी तो जैसे सम्भव हैं वैसे नहीं हैं, इसलिये जैसे
श्रावक वैसे मुनि?
उत्तरः — श्रावकसंज्ञा तो शास्त्रमें सर्व गृहस्थ जैनियोंको है। श्रेणिक भी असंयमी था,
उसे उत्तरपुराणमें श्रावकोत्तम कहा है। बारह सभाओंमें श्रावक कहे हैं वहाँ सर्व व्रतधारी
नहीं थे। यदि सर्व व्रतधारी होते तो असंयत मनुष्योंकी अलग संख्या कही जाती, सो नहीं
कही है; इसलिये गृहस्थ जैन श्रावक नाम प्राप्त करता है। और मुनिसंज्ञा तो निर्ग्रन्थके सिवा
कहीं कही नहीं है।
तथा श्रावकके तो आठ मूलगुण कहे हैं। इसलिये मद्य, मांस, मधु, पाँच उदम्बरादि
फलोंका भक्षण श्रावकोंके है नहीं; इसलिये किसी प्रकारसे श्रावकपना तो सम्भवित भी है;
परन्तु मुनिके अट्ठाईस मूलगुण हैं सो वेषियोंके दिखाई नहीं देते, इसलिये मुनिपना किसी भी
प्रकार सम्भव नहीं है। तथा गृहस्थ-अवस्थामें तो पहले जम्बूकुमारादिकने बहुत हिंसादि कार्य