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छठवाँ अधिकार ][ १८५
तो निगुरा होता नहीं है। जिस प्रकार नास्तिक तो उसका नाम है जो परमेश्वरको मानता
ही नहीं और जो परमेश्वरको तो माने, परन्तु इस क्षेत्रमें परमेश्वरका लक्षण न देखकर किसीको
परमेश्वर न माने तो नास्तिक तो होता नहीं है; उसी प्रकार यह जानना।
फि र वह कहता है — जैन-शास्त्रोंमें वर्तमानमें केवलीका तो अभाव कहा है, मुनिका
तो अभाव नहीं कहा है?
उत्तरः — ऐसा तो कहा नहीं है कि इन देशोंमें सद्भाव रहेगा; परन्तु भरतक्षेत्रमें कहते
हैं, सो भरतक्षेत्र तो बहुत बड़ा है, कहीं सद्भाव होगा; इसलिये अभाव नहीं कहा है। यदि
तुम रहते हो उसी क्षेत्रमें सद्भाव मानोगे, तो जहाँ ऐसे भी गुरु नहीं मिलेंगे वहाँ जाओगे तब
किसको गुरु मानोगे? जिस प्रकार — हंसोंका सद्भाव वर्तमान में कहा है, परन्तु हंस दिखाई
नहीं देते तो और पक्षियोंको तो हंस माना नहीं जाता; उसी प्रकार वर्तमानमें मुनियों का सद्भाव
कहा है, परन्तु मुनि दिखाई नहीं देते तो औरोंको तो मुनि माना नहीं जा सकता।
फि र वह कहता है — एक अक्षरके दाताको गुरु मानते हैं; तो जो शास्त्र सिखलायें
व सुनायें उन्हें गुरु कैसे न मानें?
उत्तरः — गुरु नाम बड़ेका है। सो जिस प्रकारकी महंतता जिसके सम्भव हो, उसे
उस प्रकार गुरुसंज्ञा सम्भव है। जैसे — कुल अपेक्षा माता-पिताको गुरुसंज्ञा है; उसी प्रकार
विद्याए पढ़ानेवालेको विद्या-अपेक्षा गुरुसंज्ञा है। यहाँ तो धर्मका अधिकार है, इसलिये जिसके
धर्म-अपेक्षा महंतता सम्भवित हो उसे गुरु जानना। परन्तु धर्म नाम चारित्रका है, ‘‘चारित्तं
खलु धम्मो’’१ऐसा शास्त्रमें कहा है, इसलिये चारित्रके धारकको ही गुरुसंज्ञा है। तथा जिस
प्रकार भूतादिका नाम भी देव है; तथापि यहाँ देवके श्रद्धानमें अरहन्तदेवका ही ग्रहण है,
उसी प्रकार औरोंका भी नाम गुरु है तथापि यहाँ श्रद्धानमें निर्ग्रन्थका ही ग्रहण है। जैनधर्ममें
अर्हन्तदेव, निर्ग्रन्थगुरु ऐसा प्रसिद्ध वचन है।
यहाँ प्रश्न है कि निर्ग्रन्थके सिवा अन्यको गुरु नहीं मानते; सो क्या कारण है?
उत्तरः — निर्ग्रन्थके सिवा अन्य जीव सर्वप्रकारसे महंतता धारण नहीं करते। जैसे —
लोभी शास्त्र व्याख्यान करे वहाँ वह इसे शास्त्र सुनानेसे महंत हुआ और यह उसे धन-
वस्त्रादि देनेसे महंत हुआ। यद्यपि बाह्यमें शास्त्र सुनानेवाला महंत रहता है, तथापि अन्तरंगमें
लोभी होता है; इसलिये सर्वथा महंतता नहीं हुई।
१. प्रवचनसार गाथा १ — ७