Moksha-Marg Prakashak (Hindi).

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१८४ ] [ मोक्षमार्गप्रकाशक
वे छर्दि (उल्टी) करके उसी छर्दिका पुनः भक्षण करते हैं अर्थात् निन्दनीय हैं। इत्यादिक
वहाँ कहते हैं।
इस प्रकार शास्त्रोंमें कुगुरुका व उनके आचरणका व उनकी सुश्रुषाका निषेध किया
है सो जानना।
तथा जहाँ मुनिको धात्रीदूत आदि छयालीस दोष आहारादिकमें कहे हैं; वहाँ गृहस्थोंके
बालकोंको प्रसन्न करना, समाचार कहना, मंत्र-औषधि-ज्योतिषादि कार्य बतलाना तथा किया-
कराया, अनुमोदित भोजन लेना
इत्यादिक क्रियाओंका निषेध किया है; परन्तु अब कालदोषसे
इन्हीं दोषोंको लगाकर आहारादि ग्रहण करते हैं।
तथा पार्श्वस्थ, कुशीलादि भ्रष्टाचारी मुनियोंका निषेध किया है, उन्हींके लक्षणोंको धारण
करते हैं। इतना विशेष है किवे द्रव्यसे तो नग्न रहते हैं, यह नाना परिग्रह रखते हैं।
तथा वहाँ मुनियोंके भ्रामरी आदि आहार लेनेकी विधि कही है; परन्तु यह आसक्त होकर,
दातारके प्राण पीड़ित करके आहारादिका ग्रहण करते हैं। तथा जो गृहस्थधर्ममें भी उचित
नहीं है व अन्याय, लोकनिंद्य, पापरूप कार्य करते प्रत्यक्ष देखे जाते हैं।
तथा जिनबिम्ब, शास्त्रादिक सर्वोत्कृष्ट पूज्य उनकी तो अविनय करते हैं और आप
उनसे भी महंतता रखकर ऊपर बैठना आदि प्रवृत्तिको धारण करते हैंइत्यादिक अनेक
विपरीतताएँ प्रत्यक्ष भासित होती हैं और अपनेको मुनि मानते हैं, मूलगुण आदिके धारी कहलाते
हैं। इस प्रकार अपनी महिमा कराते हैं और गृहस्थ भोले उनके द्वारा प्रशंसादिकसे ठगाते
हुए धर्मका विचार नहीं करते, उनकी भक्तिमें तत्पर होते हैं; परन्तु बड़े पापको बड़ा धर्म
मानना इस मिथ्यात्वका फल कैसे अनन्त संसार नहीं होगा? शास्त्रमें एक जिनवचनको अन्यथा
माननेसे महापापी होना कहा है; यहाँ तो जिनवचनकी कुछ बात ही नहीं रखी, तो इसके
समान और पाप कौन है?
शिथिलाचारकी पोषक युक्तियाँ और उनका निराकरण
अब यहाँ, कुयुक्ति द्वारा जो उन कुगुरुओं की स्थापना करते हैं उनका निराकरण
करते हैं।
वहाँ वह कहता हैगुरु बिना तो निगुरा कहलायेंगे और वैसे गुरु इस समय दिखते
नहीं हैं; इसलिये इन्हींको गुरु मानना?
उत्तरःनिगुरा तो उसका नाम है जो गुरु मानता ही नहीं। तथा जो गुरुको तो
माने, परन्तु इस क्षेत्रमें गुरुका लक्षण न देखकर किसीको गुरु न माने, तो इस श्रद्धानसे