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छठवाँ अधिकार ][ १८३
और भी गाथासूत्र वहाँ उस श्रद्धानको दृढ़ करनेके लिये कहे हैं वे वहाँसे जानना।
तथा कुन्दकुन्दाचार्यकृत ‘‘लिंगपाहुड़’’ है, उसमें मुनिलिंग धारण करके जो हिंसा,
आरम्भ, यंत्र-मंत्रादि करते हैं उनका बहुत निषेध किया है।
तथा गुणभद्राचार्यकृत ‘‘आत्मानुशासन’’ में ऐसा कहा हैः —
इतस्ततश्च त्रस्यन्तो विभाववर्य्यां यथा मृगाः।
वनाब्दसन्त्युग्रामं कलौ कष्टं तपस्विनः।।१९७।।
अर्थः — कलिकालमें तपस्वी मृगकी भाँति इधर-उधरसे भयभीत होकर वनसे नगरके
समीप वास करते हैं, यह महाखेदकारी कार्य है। यहाँ नगरके समीपही रहनेका निषेध किया,
तो नगरमें रहना तो निषिद्ध हुआ ही।
वरं गार्हस्थ्यमेवाद्य तपसो भाविजन्मनः।
सुस्त्रीकटाक्षलुण्टाकैर्लुप्तवैराग्यसम्पदः।।२००।।
अर्थः — होनेवाला है अनन्त संसार जिससे ऐसे तपसे गृहस्थपना ही भला है। कैसा
है वह तप? प्रभात होते ही स्त्रियोंके कटाक्षरूपी लुटेरों द्वारा जिसकी वैराग्य-सम्पदा लुट
गई है — ऐसा है।
तथा योगीन्द्रदेवकृत ‘‘परमात्मप्रकाशमें’’ ऐसा कहा हैः —
चिल्लाचिल्लीपुत्थियहिं, तूसइ मूढु णिभंतु।
एयहिं लज्जइ णाणियउ, बंधहं हेउ मुणंतु।।२१५।।
चेला-चेली और पुस्तकों द्वारा मूढ़ संतुष्ट होता है; भ्रान्तिरहित ऐसा ज्ञानी उन्हें बन्धका
कारण जानता हुआ उनसे लज्जायमान होता है।
केणवि अप्पउ वंचियउ, सिरुलुंचिवि छारेण।
सयलवि संग ण परिहरिय, जिणवरलिंगधरेण।।२१७।।
किसी जीव द्वारा अपना आत्मा ठगा गया, वह कौन? कि जिस जीवने जिनवरका
लिंग धारण किया और राखसे सिरका लोंच किया; परन्तु समस्त परिग्रह नहीं छोड़ा।
जे जिणलिंगु धरेवि मुणि, इट्ठपरिग्गह लिंति।
छद्दि करेविणु ते जि जिय, सा पुणु छद्दि गिलंति।।२१८।।
अर्थः — हे जीव! जो मुनि जिनलिंग धारण करके इष्ट परिग्रहको ग्रहण करते हैं,