Moksha-Marg Prakashak (Hindi).

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१९० ] [ मोक्षमार्गप्रकाशक
हैं, हिंसादिक बढ़ते हैं, इसमें धर्म क्या हुआ? तथा औंधे मुँह झूलते हैं, ऊर्ध्वबाहु रखते
हैं।
इत्यादि साधन करते हैं, वहाँ क्लेश ही होता है। यह कुछ धर्मके अंग नहीं हैं।
तथा पवन-साधन करते हैं वहाँ नेती, धोती इत्यादि कार्योंमें जलादिकसे हिंसादिक उत्पन्न
होते हैं; कोई चमत्कार उत्पन्न हो तो उससे मानादिक बढ़ते हैं; वहाँ किंचित् धर्मसाधन नहीं
है।
इत्यादिक क्लेश तो करते हैं, विषय-कषाय घटानेका कोई साधन नहीं करते। अन्तरंगमें
क्रोध, मान, माया, लोभका अभिप्राय है; वृथा क्लेश करके धर्म मानते हैं सो कुधर्म है।
तथा कितने ही इस लोकमें दुःख सहन न होनेसे व परलोकमें इष्टकी इच्छा व अपनी
पूजा बढ़ानेके अर्थ व किसी क्रोधादिकसे आपघात करते हैं। जैसेपतिवियोगसे अग्निमें
जलकर सती कहलाती है, व हिमालयमें गलते हैं, काशीमें करौंत लेते हैं, जीवित मरण लेते
हैं
इत्यादि कार्योंसे धर्म मानते हैं; परन्तु आपघातका तो महान पाप है। यदि शरीरादिकसे
अनुराग घटा था तो तपश्चरणादि करना था, मर जानेमें कौन धर्मका अंग हुआ? इसलिये
आपघात करना कुधर्म है।
इसी प्रकार अन्य भी बहुतसे कुधर्मके अंग हैं। कहाँ तक कहें, जहाँ विषय-कषाय
बढ़ते हों और धर्म मानें सो सब कुधर्म जानना।
देखो, कालका दोष, जैनधर्ममें भी कुधर्मकी प्रवृत्ति हो गयी है। जैनमतमें जो धर्म-पर्व
कहे हैं वहाँ तो विषय-कषाय छोड़कर संयमरूप प्रवर्तना योग्य है। उसे तो ग्रहण नहीं करते
और व्रतादिकका नाम धारण करके वहाँ नाना श्रृंगार बनाते हैं, इष्ट-भोजनादिक करते हैं,
कुतूहलादि करते हैं व कषाय बढ़ानेके कार्य करते हैं, जुआ इत्यादि महान पापरूप प्रवर्तते हैं।
तथा पूजनादि कार्योंमें उपदेश तो यह था कि‘‘सावद्यलेशो बहुपुण्यराशौ
दोषायनालंबहुत पुण्यसमूहमें पापका अंश दोषके अर्थ नहीं है। इस छल द्वारा पूजा-
प्रभावनादि कार्योंमेंरात्रिमें दीपकसे, व अनन्तकायादिकके संग्रह द्वारा, व अयत्नाचार- प्रवृत्तिसे
हिंसादिरूप पाप तो बहुत उत्पन्न करते हैं और स्तुति, भक्ति आदि शुभपरिणामोंमें नहीं प्रवर्तते
व थोड़े प्रवर्तते हैं; सो वहाँ नुकसान बहुत, नफा थोड़ा या कुछ नहीं। ऐसे कार्य करनेमें
तो बुरा ही दिखना होता है।
तथा जिनमन्दिर तो धर्मका ठिकाना है। वहाँ नाना कुकथा करना, सोना इत्यादि
१. पूज्यं जिनं त्वार्चयतोजनस्य, सावद्यलेशोबहुपुण्यराशौ।
दोषायनालं कणिका विषस्य, न दूषिका शीतशिवाम्बुराशौ।।५८।। (बृहत् स्वयंभूस्तोत्र)