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छठवाँ अधिकार ][ १९१
प्रमादरूप प्रवर्तते हैं; तथा वहाँ बाग-बाड़ी इत्यादि बनाकर विषय-कषायका पोषण करते हैं।
तथा लोभी पुरुषको गुरु मानकर दानादिक देते हैं व उनकी असत्य स्तुति करके महंतपना
मानते हैं। — इत्यादि प्रकारसे विषय-कषायोंको बढ़ाते हैं और धर्म मानते हैं; परन्तु जिनधर्म
तो वीतरागभावरूप है, उसमें ऐसी विपरीत प्रवृत्ति कालदोषसे ही देखी जाती है।
इस प्रकार कुधर्मसेवनका निषेध किया।
अब, इसमें मिथ्यात्वभाव किस प्रकार हुआ सो कहते हैंः —
तत्त्वश्रद्धान करनेमें प्रयोजनभूत तो एक यह है कि — रागादिक छोड़ना। इसी भावका
नाम धर्म है। यदि रागादिक भावोंको बढ़ाकर धर्म माने, वहाँ तत्त्वश्रद्धान कैसे रहा; तथा
जिन-आज्ञासे प्रतिकूल हुआ। रागादिकभाव तो पाप हैं, उन्हें धर्म माना सो यह झूठा श्रद्धान
हुआ; इसलिये कुधर्मके सेवनमें मिथ्यात्वभाव है।
इस प्रकार कुदेव-कुगुरु-कुशास्त्र सेवनमें मिथ्यात्वभावकी पुष्टि होती जानकर इसका
निरूपण किया।
यही ‘‘षट्पाहुड़’’में कहा है : —
कुच्छियदेवं धम्मं कुच्छियलिंगं च बंदए जो दु।
लज्जाभयगारवदो मिच्छादिट्ठी हवे सो हु।।९२।। (मोक्षपाहुड़)
अर्थः — यदि लज्जासे, भयसे, व बड़ाईसे भी कुत्सित् देवको, कुत्सित् धर्मको व कुत्सित्
लिंगको वन्दता है तो मिथ्यादृष्टि होता है।
इसलिये जो मिथ्यात्वका त्याग करना चाहे वह पहले कुदेव, कुगुरु, कुधर्मका त्यागी
हो। सम्यत्वके पच्चीस मलोंके त्यागमें भी अमूढ़दृष्टिमें व षडायतनमें इन्हींका त्याग कराया है;
इसलिये इनका अवश्य त्याग करना।
तथा कुदेवादिकके सेवनसे जो मिथ्यात्वभाव होता है सो वह हिंसादिक पापोंसे बड़ा
पाप है। इसके फलसे निगोद, नरकादि पर्यायें पायी जाती हैं। वहाँ अनन्तकालपर्यन्त महा
संकट पाया जाता है, सम्यग्ज्ञानकी प्राप्ति महा दुर्लभ हो जाती है।
यही ‘‘षट्पाहुड़’’में कहा है : —
कुच्छियधम्मम्मि रओ कुच्छियपासंडिभत्तिसंजुत्तो।
कुच्छियतवं कुणंतो कुच्छियगइभायणो होइ।।१४०।। (भावपाहुड़)