Moksha-Marg Prakashak (Hindi).

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१९२ ] [ मोक्षमार्गप्रकाशक
अर्थ :जो कुत्सित धर्ममें रत है, कुत्सित पाखण्डियोंकी भक्तिसे संयुक्त है, कुत्सित
तपको करता है; वह जीव कुत्सित अर्थात् खोटी गतिको भोगनेवाला होता है।
सो हे भव्यो! किंचित्मात्र लोभसे व भयसे कुदेवादिकका सेवन करके जिससे
अनन्तकालपर्यन्त महादुःख सहना होता है ऐसा मिथ्यात्वभाव करना योग्य नहीं है।
जिन धर्ममें यह तो आम्नाय है कि पहले बड़ा पाप छुड़ाकर फि र छोटा पाप छुड़ाया
है; इसलिये इस मिथ्यात्वको सप्त व्यसनादिकसे भी बड़ा पाप जानकर पहले छुड़ाया है। इसलिये
जो पापके फलसे डरते हैं; अपने आत्माको दुःखसमुद्रमें नहीं डुबाना चाहते, वे जीव इस
मिथ्यात्वको अवश्य छोड़ो; निन्दा
प्रशंसादिकके विचारसे शिथिल होना योग्य नहीं है। क्योंकि
नीतिमें भी ऐसा कहा हैः
निन्दन्तु नीतिनिपुणा यदि वा स्तुवन्तु
लक्ष्मीः समाविशतु गच्छतु वा यथेष्टम्
अद्यैव वास्तु मरणं तु युगान्तरे वा
न्यायात्पथः प्रविचलन्ति पदं न धीराः
।।८४।। (नीतिशतक)
कोई निन्दा करता है तो निन्दा करो, स्तुति करता है तो स्तुति करो, लक्ष्मी आओ
व जहाँ-तहाँ जाओ, तथा अभी मरण होओ व युगान्तरमें होओ; परन्तु नीतिमें निपुण पुरुष
न्यायमार्गसे एक डग भी चलित नहीं होते।
ऐसा न्याय विचारकर निन्दाप्रशंसादिकके भयसे, लोभादिकसे, अन्यायरूप मिथ्यात्व-
प्रवृत्ति करना युक्त नहीं है।
अहो! देव-गुरु-धर्म तो सर्वोत्कृष्ट पदार्थ हैं, इनके आधारसे धर्म है। इनमें शिथिलता
रखनेसे अन्य धर्म किस प्रकार होगा? इसलिये बहुत कहनेसे क्या? सर्वथा प्रकारसे कुदेव-
कुगुरु-कुधर्मका त्यागी होना योग्य है।
कुदेवादिकका त्याग न करनेसे मिथ्यात्वभाव बहुत पुष्ट होता है और वर्तमानमें यहाँ
इनकी प्रवृत्ति विशेष पायी जाती है; इसलिये इनका निषेधरूप निरूपण किया है। उसे जानकर
मिथ्यात्वभाव छोड़कर अपना कल्याण करो।
इति श्री मोक्षमार्गप्रकाशक नामक शास्त्रमें कुदेव-कुगुरु-कुधर्म निषेध वर्णनरूप
छठवाँ अधिकार समाप्त हुआ।।।।