Moksha-Marg Prakashak (Hindi) (Original language). Satava Adhyay.

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Shri Digambar Jain Swadhyay Mandir Trust, Songadh
શ્રી દિગંબર જૈન સ્વાધ્યાયમંદિર ટ્રસ્ટ, સોનગઢશ્રી દિગંબર જૈન સ્વાધ્યાયમંદિર ટ્રસ્ટ, સોનગઢ - - ૩૬૪૨૫૦
सातवाँ अधिक ार ][ १९३
सातवाँ अधिकार
जैन मिथ्यादृष्टियोंका विवेचन
दोहाःइस भवतरुका मूल इक, जानहु मिथ्याभाव
ताकौं करि निर्मूल अब, करिए मोक्ष उपाव।।
अब, जो जीव जैन हैं, जिन-आज्ञा को मानते हैं और उनके मिथ्यात्व रहता है,
उसका वर्णन करते हैंक्योंकि इस मिथ्यात्व बैरीका अंश भी बुरा है, इसलिये सूक्ष्म मिथ्यात्व
भी त्यागने योग्य है।
वहाँ जिनागममें निश्चय-व्यवहाररूप वर्णन है। उनमें यथार्थका नाम निश्चय है,
उपचारका नाम व्यवहार है। इनके स्वरूपको न जानते हुए अन्यथा प्रवर्तते हैं, वही कहते
हैं :
निश्चयाभासी मिथ्यादृष्टि
कितने ही जीव निश्चयको न जानते हुए निश्चयाभासके श्रद्धानी होकर अपनेको
मोक्षमार्गी मानते हैं, अपने आत्माका सिद्धसमान अनुभव करते हैं, आप प्रत्यक्ष संसारी हैं,
भ्रमसे अपनेको सिद्ध मानते हैं, वही मिथ्यादृष्टि हैं।
शास्त्रोंमें जो सिद्ध समान आत्माको कहा है वह द्रव्यदृष्टिसे कहा है, पर्याय-अपेक्षा
सिद्ध समान नहीं है। जैसेराजा और रंक मनुष्यपनेकी अपेक्षा समान हैं, परन्तु राजापने
और रंकपनेकी अपेक्षासे तो समान नहीं हैं; उसी प्रकार सिद्ध और संसारी जीवत्वपनेकी अपेक्षा
समान हैं, परन्तु सिद्धपने और संसारीपनेकी अपेक्षा तो समान नहीं हैं। तथापि ये तो जैसे
सिद्ध शुद्ध हैं, वैसा ही अपनेको शुद्ध मानते हैं। परन्तु वह शुद्ध-अशुद्ध अवस्था पर्याय
है; इस पर्याय-अपेक्षा समानता मानी जाये तो यही मिथ्यादृष्टि है।
तथा अपनेको केवलज्ञानादिकका सद्भाव मानते हैं, परन्तु अपनेको तो क्षयोपशमरूप
मति-श्रुतादि ज्ञानका सद्भाव है, क्षायिकभाव तो कर्मका क्षय होने पर होता है और ये भ्रमसे
कर्मका क्षय हुए बिना ही क्षायिकभाव मानते हैं, सो यही मिथ्यादृष्टि है।